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3620 श्लोक-परिमाण वाली है जो योगबिन्दु ग्रन्थ के विषयों के अधिक स्पष्टीकरण के लिए अत्यन्त उपयोगी है। 3. योगविंशिका -
आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा विरचित मात्र बीस गाथाओं का यह अल्पकायी ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें योग को एक नई दिशा मिली है। यह प्राकृतभाषीय ग्रन्थ है तथा इस ग्रन्थ के अन्तर्गत योग के अस्सी भेदों का वर्णन है।
इसमें मन-वचन-काय की प्रवृत्ति योगरुप है, इस परम्परागत परिभाषा के स्थान पर आचार्यश्री ने मोक्ष से जोड़ने में सहायक विशुद्ध धर्म-व्यापार को योग कहा है,45 तत्पश्चात् स्थान (आसन), ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन और अनालम्बन -इन पाँच भेदों की चर्चा की है। यह उनकी अपनी मौलिक देन है। इससे पहले इनका किसी भी जैन ग्रन्थ में उल्लेख नहीं मिलता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में स्थान और ऊर्ण को कर्मयोग तथा अर्थ, आलम्बन और अनालम्बन को ज्ञानयोग कहा गया है।46 आगे, इच्छासंज्ञक, प्रवृत्तिसंज्ञक, स्थिरता और सिद्धियोग' –इन चार योग अंगों का तथा चैत्यवंदन-सूत्र के पदों का वास्तविक ज्ञान कब, किसको, कैसे प्राप्त होता है, उसका विश्लेषण किया गया है। तदनन्तर; प्रीति, भक्ति, आगम और असंग -इन चार अनुष्ठानों का विवेचन किया गया है। प्रस्तुत कृति की अन्तिम दो गाथाओं में यह स्पष्ट किया गया है कि ध्यान आलम्बन तथा अनालम्बन रुप से दो भेद वाला है। आलम्बन योग स्थूल ध्यानवाला तथा अनालम्बन-योग सूक्ष्मध्यान वाला है और अनालम्बनयोग की उपलब्धि के बिना मोक्ष संभव नहीं है।
- योगविंशिका-1 - वही-2
4" प्रस्तुत संदर्भ ‘पंचाशक-प्रकरण' पुस्तक की भूमिका से उद्धृत 45 मोक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वोवि धम्मवावारो। परिसुद्धो विन्नेओ ठाणाइगओ विसेसेणं।। 46 ठाणुन्नत्थालंबण-रहिओ तन्तम्मि पंचहा एसो। दुगमित्थ कम्म योगो तहा तियं नाणजोगोउ।। 47 तज्जुत्तकहापीईह संगया विपरिणामिणीइच्छा। सव्वत्थुसमसारं तप्पालणमो पवत्तीउ।।
तह चेव एयबाहग-चिन्तारहियं थिरत्तणं नेयं। सलं परत्थ साहग-रूवं पुण होइ सिद्धि ति।। 48 अरिहंतचेइयाणं करेमि ............ चिंतियव्वमिणं ।। - वही, 10-13 49 एयं च पीइभत्तागमाणुगं तह असंगया जुत्त। नेयं चउब्विह खलु एसो चरमो हवइ जोगो।।
-योगविंशिका, 5-6
- वही, 18
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