________________
381
स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा-रुप में आठ प्रकार की हैं। इन योगदृष्टियों की विस्तार से चर्चा करने के बाद ग्रन्थ के अन्त में योग के अधिकारी का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि साधक यम-नियम आदि योगांगों के अभ्यासी तथा खेद, उद्वेग आदि दोषों से रहित 2 समभाव, गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी, सिद्धयोगी ही योगाधिकार को प्राप्त करते हैं। आचार्य हरिभद्र ने इस ग्रन्थ पर वृत्ति भी लिखी है, जो 1175 श्लोक-परिमाण है। 2. योगबिन्दु -
संस्कृत भाषा में लिखा गया यह योगबिन्दु ग्रन्थ आचार्य हरिभद्रसूरि की दूसरी कृति है। यह 527 पद्य से युक्त तथा अनुष्टुप छन्द में निबद्ध है। आचार्य हरिभद्र ने योग को मोक्ष का हेतु बताते हुए कहा है -योग ही मोक्ष का कारण है
और वह शुद्ध ज्ञान और अनुभव आश्रित है। योग के स्वामी दो प्रकार के होते हैं -1. चरमावर्त्तवर्ती और 2. अचरमावर्त्तवर्ती। इसमें मोक्ष का अधिकारी तो चरमावर्त्तवर्ती ही है, क्योंकि वह उसी आवर्त मोक्ष प्राप्त करता है। संसार का अधिकारी भवाभिनन्दी कहलाता है। चारित्र-गुरु से युक्त साधक योग का अधिकारी माना जाता है। आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत ग्रन्थ में योग का प्रभाव, अध्यात्म, लोक, प्रकृति, योग की भूमिका के रुप में पूर्वसेना, विषानुष्ठान, गरानुष्ठान, अनानुष्ठान, तद्धेतु-अनुष्ठान, अमृतानुष्ठान आदि असद् तथा सद्-अनुष्ठानों का वर्णन किया है। इस ग्रन्थ में हरिभद्र ने सम्यक्त्व उपलब्धि, विरति, जप, षडावश्यक, सिद्धगति, निजस्वरुप की विवेचना, कार्यसिद्धि में समभाव, कालादि पाँच कारणों का बलाबल, महेश्वरवादी और पुरुषाद्वैतवादी के मतभेदों का खण्डन आदि का विस्तार से वर्णन किया है, साथ ही साथ 'जैनेत्तर-परम्परागत योगों का तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक विवेचन भी बहुत ही मार्मिक रुप से किया है। 'सद्योगचिन्तामणि' नामक वृत्ति
4" तृणगोमयकाष्ठाग्निकणदीपप्रभोपमा। रत्नतारार्कचन्द्राभा सदृष्टेर्दृष्टिरष्टधा।। - वही, 15
' प्रस्तुत श्लोकार्थ 'जैन योग ग्रन्थ चतुष्टय' –सं. डॉ. छगनलाल शास्त्री, से उद्धृत प्र. 5 42 यमादियोगयुक्तानां खेदादिपरिहारतः ।। – वही, 16 पृ. 5 43 मोक्षहेतुत्वमेवास्य किंतु यत्नेन धीधनै ....... || – योगबिन्दु, श्लोक-4
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org