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________________ 384 भूमिका है। इसका पारिभाषिक नाम अपुनर्बन्धक है। मोक्ष के प्रति सहज-रुचि, उसकी यथाशक्ति समझ – यह सम्यग्दृष्टि नाम की दूसरी भूमिका है। ___जब तक रुचि-समझ आंशिक रुप से जीवन में उतरती है तब देशविरति नाम की तीसरी भूमिका है और इससे आगे जब सम्पूर्ण रुप से त्याग की कला विकसित होने लगती है, तब सर्वविरति नाम की चौथी भूमिका आती है।"54 जिसने अभी धर्म की सच्ची भूमिका का स्पर्श नहीं किया, उनके लिए अलग विधान भी इस ग्रन्थ में बताए गए हैं। 'धर्मबिन्दु, 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' आदि ग्रन्थों में भी योग का वर्णन मिलता है। 'ध्यानशतकवृत्ति' में आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल-ध्यान का गम्भीर एवं विस्तारपूर्वक विवेचन है। ध्यान का यह गम्भीर विवेचन ही मेरे शोधकार्य का विषय बना है। ज्ञानार्णव और योगशास्त्र का युग (ईसा की 11 वी एवं 12 वीं शती) ज्ञानार्णव और योगशास्त्र का काल ईसा की ग्यारहवीं शती से बारहवीं शती तक माना जाता है। ध्यान और योग के सन्दर्भ में आचार्य शुभचन्द्र और कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य का नाम योग के महान लेखकों के रुप में विशेष रुप से उल्लेखनीय रहा है। शुभचन्द्राचार्य का ज्ञानार्णव और हेमचन्द्राचार्य का योगशास्त्र ध्यान एवं योग विषय की प्रसिद्ध कृतियाँ हैं, जो जैनवाड्.मय की अमूल्य-निधि मानी जा सकती हैं। 54 समदर्शी हरिभद्रसूरि ।। सं. जिनविजयमुनि।। पुस्तक से संदर्भ उद्धृत है। पृ. 73 Jain Education International For Personat & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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