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उपासकदशा में दस श्रावकों द्वारा ग्यारह प्रतिमाओं की आराधना के अन्तर्गत कायोत्सर्ग प्रतिमा का उल्लेख है। ध्यान की प्राथमिक अवस्थारुप. कायोत्सर्ग के माध्यम से ध्यान का वर्णन मिलता है।
अन्तकृतदशा में तप को ध्यान का प्रतीक माना है और संकेत किया गया है कि ध्यानप्रक्रिया से ही सम्पूर्ण कर्मों को क्षय कर दिया जाता है। अनुत्तरौपपातिक सूत्र में ध्यान के अंग तप का उल्लेख है। ध्यानाग्नि द्वारा समस्त कर्मरुपी ईंधन को जलाकर आत्मा का निज स्वरुप प्रकट किया जाता है।
6. प्रश्नव्याकरणसूत्र में ध्यान -
___ द्वादशांगी का दसवां अंग प्रश्नव्याकरण है। यह आस्रव तथा संवरद्वार के रुप में दो भागों में विभक्त है। संवरद्वार के अन्तर्गत निर्ग्रन्थों की इकतीस उपमाएँ मिलती हैं। उसमें बावीसवीं (22 वी) 'खाणुं चेव उड्डकाए'20 तथा तेईसवीं (23 वी) 'सुण्णागारा वणस्संतो णिवाय सरणप्पदीपज्झाणमिवणिप्प कंपे' तथा 'जहा खुरो चेव एगधारे 22 उपमाओं का वर्णन है, जो क्रमशः कायोत्सर्ग तथा ध्यान को सूचित करती है। इनसे यह ज्ञात होता है कि उपर्युक्त दो उपमाएं श्रमण साधकों के ध्यानाभ्यासी होने का संकेत करती हैं। प्रस्तुत सूत्र के तीसरे संवरद्वार की अस्तेय व्रत की तृतीय भावना में साधु को सतत आत्मध्यान में रमण करने का निर्देश किया गया है।
7. औपपातिकसूत्र में ध्यान -
औपपातिकसूत्र प्रथम उपांग है। इसमें तप के बारह प्रकारों को दो भागों में बांटा है - 1. छह बाह्य और 2. छह आभ्यन्तर। आभ्यन्तर तप के अर्न्तगत ध्यान के
20 प्रश्नव्याकरणसूत्र, 2/5/163 21 वही, 2/5/250 22 वही, 2/3 सू. 137, पृ. 209; सययं सज्झप्पज्झाणजुत्ते (अस्तेय व्रत की पांच भावनाएं से उद्धृत)
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