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________________ 375 प्रकार, उपप्रकार, लक्षण, आलम्बन, अनुप्रेक्षा आदि का उल्लेख मिलता है। जैसे स्थानांग में उपर्युक्त सभी का वर्णन हुआ है, वैसे ही इस सूत्र में भी उन सबका वर्णन किया गया है। ध्यान की प्रधानता को ध्यान में रखते हुए भगवान महावीर ने एक जगह श्रमणों की उच्च धर्माराधना का वर्णन करते हुए कहा है कि कुछ श्रमण घुटनों को ऊपर एवं मस्तक को नीचा कर, एक विशिष्ट आसन में अवस्थित होकर ध्यानरुपी कोष्ठ में प्रवेश करते थे, अर्थात् ध्यानमग्न रहते थे।24 8. उत्तराध्ययन में ध्यान - उत्तराध्ययनसूत्र भगवान् महावीर की अन्तिम देशना का अंश है। इसके प्रथम अध्ययन विनयसूत्र के गाथा क्रमांक दस में –साधक यथासमय अपने स्वाध्याय में उसके बाद एकाकी ध्यानभ्यास करें।25 इसी सूत्र के अठारहवां अध्ययन 'संजयीय' में, राजा संजय शिकार हेतु वन में गया, वहाँ केसर नामक उद्यान में एक तपोधन अनगार स्वाध्याय और ध्यान में संलग्न तथा धर्मध्यान में एकतान थे। राजा संजय ने उनके समीप स्थित मृग को बाणों से मार दिया। लेकिन ध्यानस्थ मुनि को देखते ही क्षमायाचना की। मौनपूर्वक ध्यान (धर्मध्यान) की साधना में मग्न होने से राजा को कोई उत्तर नहीं मिला। तत्पश्चात् राजा ने धर्म-श्रवण किया, वैराग्य को प्राप्त होकर संयम ग्रहण किया। यह ध्यान के प्रभाव से ही हुआ था। औपपातिकसूत्र, 30 पृ. 9-50 24 वही, 31, पृ. 80 22 तओ झाएज्ज एगगो ..... – उत्तराध्ययनसूत्र, 1 अध्ययन, गाथा-10, पृ. 10 26 अह केसरम्मि उज्जाणे अणगारे तवोधणे। सज्झाय-ज्झाणसंजुत्ते धम्मज्झाणं झियायई ।। वही, 18/4 27....झायई झवियासवे तस्सागए मिए पासं वहेई से नराहिवे।। - वही, 18/9 28 अह मोणेण सो भगवं अणगारे झाणमस्सिए। रायाणं न पडिमन्तेइ ..... || - वही 18/9 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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