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इस आगमग्रन्थ में भी स्थानांगसूत्र के समान ही ध्यान के चार प्रकार, स्वरुप, लक्षण आदि की विस्तृत रुप से चर्चा की गई है, अन्तर मात्र इतना है कि इसमें ध्यान को तप का ही एक अंग बताया गया है।18
। भगवान् महावीर अपने साधनामय जीवन की ध्यानात्मक-प्रक्रिया और अनुभव का वर्णन करते हुए उनके शिष्य गौतम को बताते हैं कि साढ़े बारह वर्ष घोर तपस्याकाल के अन्तर्गत तप और संयम का सम्यक्-प्रकारेण परिपालन करता हुआ, तप द्वारा आत्मा को निर्मल तथा पवित्र बनाता हुआ, ग्रामानुग्राम विहार करताकरता सुंसुभार नगरी में जा पहुंचा। वहाँ अशोक नामक उद्यान के अशोकवृक्ष के नीचे मन, वचन और काया की गतिविधियों को विराम देते हुए उसने एक पदार्थ पर दृष्टि केन्द्रित की। चक्षु को निर्निमेष उद्घाटित करते हुए, इन्द्रियों का संयम रखते हुए उसने एक रात की महाप्रतिमा अंगीकार की। यह क्रम आगे भी कई बार चलता रहा। इस प्रसंग से यह स्पष्ट होता है कि वे ध्यान-साधना में निरत रहते थे। इससे इस बात की भी पुष्टि होती है कि उस समय उनके ध्यान की कोई विशेष प्रक्रिया रही होगी। ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा तथा अनुत्तरौपपातिकदशा इन आगमों में धर्मकथानुयोग के माध्यम से ध्यान का वर्णन किया गया है, जैसे- ज्ञाता-धर्मकथा में प्रथम श्रुतस्कंध के 'मेघकुमार' नामक प्रथम अध्ययन में और तेतलीपुत्र नामक चतुर्थ अध्ययन में दोनों की कथा द्वारा सबसे पहले आर्त्तध्यान का स्वरुप बताया गया, फिर धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान के स्वरुप को स्पष्ट किया। दूसरे अध्ययन में विजयचोर की कथा द्वारा रौद्रध्यान एवं उसके फल का वर्णन है। इस प्रकार आठवें तथा तेरहवें अध्ययन में भी ध्यान का वर्णन
18 वही, 25/7/238-249/पृ. 507-508 1 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
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