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1. शरीर की स्थिरता, 2. वचन का मौन और 3. चित्त की निर्विकल्पता।
चित्त की संकल्प-विकल्प की प्रवृत्ति की स्थिरता के लिए, अथवा चित्त की एकाग्रता के विकास के हेतु ध्यान की विभिन्न पद्धतियाँ खोजी गई हैं। किसी बिन्दु-विशेष पर चेतना के स्थिरीकरण से त्राटकध्यानविधि विकसित हुई। आचारांगसूत्र के अनुसार, महावीर किसी दीवार पर दृष्टि को स्थिर कर ध्यान करते थे।' श्वास पर चित्तवृत्तियों के केन्द्रीकरण करने की विधि भी मिलती है। प्राचीन जैन-ग्रन्थों में श्वासोश्वास पर चित्तवृत्ति को केन्द्रित करने का निर्देश मिलता है। इसी के आधार पर, बौद्ध-परम्परा के अन्तर्गत आनापानसति के रुप में ध्यानविधि बताई गई है। वर्तमान-काल में भी विपश्यना की शुरुआत को आनापानसति से माना जाता है। इस प्रकार, त्राटक-साधना के अलावा श्वास-प्रेक्षा, शरीरप्रेक्षा, विचारप्रेक्षा आदि के संकेत प्राचीन जैन तथा बौद्ध-साहित्य में मिलते हैं। जैन ध्यान-परम्परा के ऐतिहासिक विकासक्रम को समझने के लिए हमें उसे अनेक भागों में बांटकर देखना होगा कि उनमें ध्यान-साधना की परम्पराएँ विभिन्न युगों में किस प्रकार रही हुई हैं।
सुविधा की दृष्टि से, जैन ध्यान-साधना को हम निम्न छह भागों में बांट सकते हैं - 1. क) आगम-युग – (ईसा पूर्व पांचवी शती से ईसा की पांचवीं शती तक)
ख) आगमिक व्याख्या युग – (ईसा की पांचवी से सातवीं शती तक) 2. हरिभद्र-युग (ईसा की आठवीं शती से दसवीं शती तक) 3. ज्ञानार्णव और योगशास्त्र का युग (ईसा की 11-12 वीं शती) 4. तान्त्रिक-युग (ईसा की 11 वीं शती से 19 वीं शती तक) 5. यशोविजय-युग (ईसा की 17 वीं शती से 19 वीं शती तक) 6. आधुनिक युग (ईसा की 20 वीं शती से 21 वीं शती तक)
'आचारांग- 1/9/45
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