________________
366
आगमों में जैसे -सूत्रकृतांग', अन्तकृत्दशा', औपपातिक', ऋषिभाषित' में विद्यमान है, जो इस बात का प्रमाण है कि निर्ग्रन्थ-परम्परा रामपुत्त की ध्यान-साधना की पद्धति से प्रभावित थी। बौद्ध-परम्परा की विपश्यना और निर्ग्रन्थ-परम्परा की आचारांग में वर्णित ध्यान-साधना में जो कुछ निकटता प्रतीत होती है, वह यह सूचित करती है कि सम्भवतः दोनों का मूल स्रोत रामपुत्त की ध्यान-पद्धति रही होगी।
___ जहाँ तक पुरातात्त्विक-प्रमाणों का प्रश्न है, हमें मोहनजोदड़ो हड़प्पा से जो सीलें प्राप्त हुई हैं, उनमें ध्यान-साधना करते हुए व्यक्तियों का अंकन है। इससे यह सिद्ध होता है कि आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व भी मानव ध्यान-साधना करता था।
जैन-तीर्थंकरों की जो पुराकालीन मूर्तियाँ लोहानीपुर-पटना एवं मथुरा से प्राप्त हुई हैं, उनमें भी तीर्थंकरों को ध्यानमुद्रा में ही दिखाया गया है। भारत की निवृत्तिपरक-परम्परा की जो जैन, बौद्ध और औपनिषदिक-धाराएँ हैं, उनके पूर्व-पुरुष भी ध्यान-साधनाएँ करते थे -ऐसे पुरातात्त्विक-प्रमाण उपलब्ध होते हैं। शिव और बुद्ध की भी अनेक मूर्तियाँ ध्यानमुद्रा में मिली हैं। जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ शत-प्रतिशत ध्यानमुद्रा के रूप में ही मिलती हैं। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि ध्यान-साधना का इतिहास अतिप्राचीन है। वह महावीर और बुद्ध के पूर्व तक जाता है।
संक्षेप में कहा जाए, तो ध्यान-साधना की प्राथमिक अवस्था के लिए श्रमणपरम्परा में तीन तत्त्वों को अनिवार्य माना गया है -
। सूत्रकृतांग, प्रथम श्रुतस्कंध, अध्ययन 3, उद्देशक 4, गाथा 2-3, पृ. 224 2 स्थानांग, स्थान 10, 133 (इसमें अन्तकृत्दशा की प्राचीन विषयवस्तु का उल्लेख है।)
औपपातिकदशा * इसिभासियाइं – अध्याय 2 3 ' 'जैन साधना-पद्धति में ध्यान', डॉ. सागरमल जैन, पुस्तक से उद्धृत -33, 34 " MOHENJODARO AND INDUS CIVILIZATION - JOHN MARSHALL, VOL. I, Page - 52
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org