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________________ 365. षष्ठ अध्याय ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम - . शुद्ध आत्मस्वरुप की अनुभूति के लिए ध्यान-साधना आवश्यक मानी गई है। मानव-संस्कृति के विकास के प्रारंभिक युग से ही हमें ध्यानसाधना का इतिहास प्राप्त होने लगता है। ध्यान-साधना के ऐतिहासिक-क्रम को समझने के लिए हमारे सामने मुख्य रुप से दो ही आधार हैं - 1. साहित्यिक और 2. पुरातात्त्विक। साहित्यिक-दृष्टि से वेदों के पश्चात् मुख्य रुप से उपनिषदों, बौद्ध-त्रिपिटक के ग्रन्थों तथा जैन आगम-ग्रन्थों में हमें किसी-न-किसी रुप में ध्यान-साधना के उल्लेख मिलते हैं। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध में महावीर की ध्यान-साधना का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार, बौद्ध-त्रिपिटक में भगवान् बुद्ध द्वारा की गई ध्यानसाधना का उल्लेख भी प्राप्त है। बौद्ध-त्रिपिटक में भगवान् बुद्ध के गुरु-तुल्य रहे रामपुत्त का वर्णन उपलब्ध है। जैन-आगम सूत्रकृतांग व इसिभासियाइं में भी रामपुत्त का उल्लेख है। साहित्यिक-दृष्टि से हमें आज जो सन्दर्भ प्राप्त होते हैं, उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि रामपुत्त विधिवत् रुप से ध्यान-साधना करवाते थे। यद्यपि उनकी ध्यान-साधना का स्वरुप क्या था, यह बता पाना कठिन है, फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि रामपुत्त की ध्यान-साधना बौद्ध-त्रिपिटक की विपश्यना और जैन आगमों की प्रेक्षा का ही कोई पूर्व रुप रही होगी। डॉ. सागरमल जैन ने कहा है –“जिस रामपुत्त का निर्देश भगवान् बुद्ध के ध्यान के शिक्षक के रुप में मिलता है, उनका उल्लेख जैन-परम्परा के प्राचीन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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