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________________ 368 आगमिक-युग ईसा की पांचवीं शता दी तक, उसके बाद जिनभद्र और हरिभद्र का युग ईसा की छठवीं शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक, शुभचन्द्र और हेमचन्द्र का युग ग्यारहवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक और तान्त्रिक-युग तेरहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक माना जाता है। यद्यपि क्रम की दृष्टि से तान्त्रिक-युग का काल तेरहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक माना जाता है, किन्तु तान्त्रिक-साधना के कुछ प्रमाण उसके पूर्व हरिभद्र के काल के बाद से भी प्राप्त होते हैं। क्योंकि ज्ञानार्णव और हेमचन्द्र के योगशास्त्र में प्राणायाम, मंत्र-साधना आदि के उल्लेख मिलते हैं, इससे यह सिद्ध होता है कि तान्त्रिक-साधना पूर्व में भी अस्तित्व में थी। उसके पश्चात् यशोविजय का युग आता है, जो मुख्यतः सत्रहवीं से अठारहवीं शताब्दी तक माना जा सकता है। इसके पश्चात्, सबसे अन्त में हम आधुनिक युग में आते हैं, जिसे प्रेक्षा-ध्यान के रुप में आचार्य महाप्रज्ञजी ने नई दिशा दी। आगे हम इन युगों और उनकी विशेषताओं की संक्षिप्त में चर्चा करेंगे। आगम-युग एवं आगमिक व्याख्या-युग (ई.पू. पांचवी शती से सातवीं शती तक) - "मुक्ति की प्राप्ति' जैन-साधना का प्रमुख उद्देश्य है। मुक्ति अर्थात् जन्म-मरण के चक्र से सदा-सदा के लिए छुटकारा पाना। जब तक संसार है, तब तक कर्मबंधन है और जब तक कर्मबंधन है, तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहेगा। इससे मुक्त होने का माध्यम है –ध्यान। ध्यान ही 'स्व' की अनुभूति की स्थिति है, विभाव से स्वभाव की ओर उन्मुख होने की स्थिति है, निज स्वरुप में अवस्थित होने की स्थिति है। प्रागैतिहासिक-काल से जैनवाड्.मय में ध्यान-साधना की श्रृंखला अविच्छिन्न रुप से चली आ रही है। आगमयुग का वर्णन 'जैनधर्म में ध्यान का ऐतिहासिक-विकासक्रम' साध्वी उदितप्रभा के शोध-प्रबन्ध के आधार पर किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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