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________________ 363 दूसरी अपेक्षा से समाधि के दो प्रकार हैं - समाधि सविकल्पसमाधि निर्विकल्पसमाधि साधक मन को विशिष्ट ध्येयतत्त्व पर एवं मन्त्र पर स्थिर करता हुआ शुभ संकल्प करता है, जैसेगतिदुःख मुक्ति, अष्टकर्मक्षय, बोधिलाभ, समाधिमरणादि। समस्त संकल्प-विकल्पों का विलीन हो जाना, ज्ञाता-दृष्टारूप स्वात्मा में स्थित रहना, अनंतज्ञान, दर्शनादि का आस्वादन करना, गुणश्रेणी आरूढ़, योगनिरोध, शैलेशी अवस्था में स्थित रहता .. है।230 परम-समाधि - तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीव दीर्घकाल तक परमसमाधि में स्थित रहता है। अजर, अमर, अविनाशी, निराबाध, निरंजन, निराकार, परम चैतन्य-स्वरूप में रमणता ही समाधि है। 'महर्षि पंतजलिकृत योगसूत्र के अनुसार, योगांगरूप जिस समाधि का वर्णन है, वह जैन-सिद्धान्तानुसार, शुक्लध्यान के प्रारंभिक-स्तर में ही समाहित हो जाती है। दूसरे शब्दों में, शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों में महर्षि पतंजलि की संप्रज्ञातसमाधि का तथा शुक्लध्यान के अंतिम दो चरणों में असंप्रज्ञात-समाधि का अन्तर्भाव हो जाता है। ध्यानशतक के अनुसार ध्यान चित्त की एकाग्रता का सूचक है। शुक्लध्यान के अन्तिम दो चरणों को छोड़कर शेष अवस्थाओं में जैनदर्शन के अनुसार विकल्प रहता है। ध्यान में चाहे विकल्पों की चंचलता समाप्त हो जाए किन्तु निर्विकल्प–अवस्था तो मात्र शुक्लध्यान के अन्तिम दो चरणों में ही है, अतः धर्मध्यान के चरण और शुक्लध्यान के प्रथम दो चरण चित्तवृत्ति की एकाग्रता के होते हुए भी निर्विकल्प चेतना के प्रतिपादक नहीं हैं। ध्यान के बाद जब हम कायोत्सर्ग की बात करते हैं, तो उसमें मन-वचन-काया के प्रति ममत्वभाव का त्याग होता है। अतः 230 वही, पृ. 52-53 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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