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3. धर्मध्यान से समाधि, समाधि से अन्तिम ध्येय - मोक्ष की प्राप्ति है | 216
'ललित-विस्तरा' में आचार्य हरिभद्रसूरि ने समाधि को द्रव्य और भाव दोनों रूपों में स्वीकार किया है । 217
'योगदृष्टिसमुच्चय' के अनुसार, 'परादृष्टि' से युक्त साधक समाधिनिष्ठ हो जाता है 218
नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरि ने समवायांगसूत्र की टीका एवं स्थानांगसूत्र की टीका में समाधि के स्वरूप को तीन प्रकार से प्रयुक्त किया है
1. सम्यक् मोक्षमार्ग की स्थिरता 219
2. चित्त की प्रशमवाहिता 220 तथा
3. श्रुत और चारित्र की विशुद्धता | 221
222
आचार्य मलयगिरि ने आवश्यकसूत्र की टीका में समाधि को परिभाषित करते हुए लिखा है कि चित्त की स्वस्थता समाधि कही जाती है। उपाध्याय यशोविजयजी ने द्वात्रिंशिका में एकाग्र और निरुद्ध चित्त को समाधि कहा है।223 ‘नियमसार' के अनुसार, वीतरागभाव में भावित आत्मा परमसमाधि को प्राप्त करता है | 224
215 समाधि सन्मार्गनिष्ठानरूपम् । - सूत्रकृतांग, श्रु. 1, अ.14 की टीका, पृ. 197
216 मोक्षं तन्मार्ग वा प्राप्ति येनात्मा धर्मध्यानात् सा समाधि । - सूत्रकृतांग टीका, अ. 10
217 'सामाधानं समाधि'
ललित विस्तरा, पृ. 355
218
योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक 176
219 ‘सम्यग्मोक्षमार्गावस्थाने - समवायांगसूत्र, सम 20 की टीका
220 ‘प्रशमवाहितायामज्ञानादौ च' स्थानांगसूत्र, स्था. 4, उद्दे. 1 की टीका
221 समाधिः श्रुतं चारित्रं च वही, उद्दे. 1 टीका
222 आवश्यकसूत्र मलयगिरि टीका, अ. 2
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223. एकाग्र निरूद्धे चित्ते समाधिरति
224 नियमसार, गाथा 122
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