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________________ _360 का शान्त करना जरूरी है। यही समाधि कही जाती है। 210 नियमसार के नौवें अधिकार में समाधि की चर्चा की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ के ग्रन्थकार ने गाथा क्रमांक 122 और 123 में कहा है कि वचन के उच्चारण की प्रवृत्ति को छोड़कर, वीतराग भाव से संयम, नियम, तप और धर्म, शुक्ल-ध्यान से जो आत्मा को ध्याता है, उसे परमसमाधि कहते हैं।11 __ 'धवला' में समाधि के स्वरूप का निरूपण करते हुए आचार्य जिनसेन ने कहा है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र में सम्यक् प्रकारेण स्थित रहना ही समाधि है।212 वास्तविकता यह है कि चित्तवृत्ति की चंचल वृत्तियाँ विकल्पात्मक-प्रवृत्ति असमाधि का मुख्य कारण है और चित्त की चंचलता शान्त हो जाए, तनावरहित हो जाए, निर्विकल्प हो जाए तो समाधि का प्रगटीकरण हो जाता है। डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में –“जब वायु के संयोग से जल तरंगायित होता है, तो उस तरंगित जल में रही हुई वस्तुओं का बोध नहीं होता, उसी प्रकार तनावयुक्त उद्विग्न चित्त में आत्मा के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार संभव नहीं है, अतः चित्त की इस उद्विग्नता का या तनावयुक्त स्थिति का समाप्त होना ही समाधि है।213 ___ शीलांकाचार्य के अनुसार, आचारांग की टीका एवं सूत्रकृतांग की टीका में समाधि शब्द की परिभाषा तीन अलग-अलग रूपों से निर्दिष्ट की है - 1. इन्द्रिय-विषयों का समाप्त होना और आवेगों का संवेग, निर्वेद में रूपान्तरण समाधि का प्रथम चरण है। 2. सम्यक् अनुष्ठान या सम्यक् आचरण समाधि माना जाता है।215 210 सर्वार्थसिद्धि - 6/24 21 वयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता वीयरायभावेण। जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स।। संजमणियतवेणदु धम्मझाणेण सुक्कझाणेण। जो झायइ अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स।। -नियमसार, 122-123 212 'दंसण-णाण-चरित्तेसु सम्ममवट्ठाणं समाही। - धवला, पु.8, पृ.88 213 'जैनसाधना-पद्धति में ध्यान' -डॉ. सागरमल जैन, पृ. 12 214 समाधि इन्द्रिय प्राणिधानम्। - आचारांग, श्रु., ज.6, उ.4, सू. 185 की टीका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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