________________
359
है कि कायोत्सर्ग की पवित्रता एवं विशुद्धता में धर्म और शुक्ल-ध्यान का ही स्थान
कायोत्सर्ग का मूल उद्देश्य समाधि है। यदि समाधि में व्यवधान होता है, आर्त्त और रौद्र-ध्यान में चित्तवृत्ति परिणत होती है, तो फिर वह कायोत्सर्ग नहीं है। कायोत्सर्ग करते समय समाधि प्रवर्धमान हो, तो यह समझना चाहिए कि कायोत्सर्ग हितावह है। कायोत्सर्ग के द्वारा होने वाली समाधि आत्मानुभूति का विषय है। योगांगों का अन्तिम अंग समाधि है। समस्त संकल्प-विकल्पों से रहित चित्तवृत्ति की जो निर्विकल्पता है, वही समाधि कहलाती है।
जब ध्यान में चित्त एकरूपता या तन्मयता प्राप्त कर ध्येय के स्वरूप में लीन हो जाता है, वही समाधि है। इसमें आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में निमग्न रहती है और निजानन्द का अनुभव करती है। ‘पातंजल योगसूत्र'207 के माध्यम से यह बात सामने आती है कि जब ध्याता ध्येय वस्तु के स्वरूप से एकाकार होकर उस स्वरूप में लीन हो जाता है, तब वह समाधि को प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में, ध्यान में ध्याता, ध्यान तथा ध्येय भिन्न-भिन्न अवस्था में दिखते हैं। परन्तु समाधि दशा में तीनों एक ही प्रतीत होते हैं। इसी बात का समर्थन किया गया है- योगसार संग्रह08 में।
___ 'तत्त्वार्थराजवार्तिक 209 में समाधि तथा ध्यान -इन दोनों को योग शब्द के अर्थ में अंतर्निहित किया है।
... 'सर्वार्थसिद्धि' में समाधि को परिभाषित करते हुए लिखा है कि यदि काष्ठागार में आग लग जाए तो उसे शान्त करना अनिवार्य है, वैसे ही श्रमणजीवन के शीलव्रतों में लगी हुई विषय-वासना, तृष्णा, इच्छा, आकांक्षा रूपी अग्नि
207 क) तदेवार्थनिर्भासं स्वरूप शून्यमिव समाधिः' – योगसूत्र 3/3 ___ ख) 'ध्यानमेव ध्येयाकारनिर्भासं प्रत्यात्मके स्वरूपेण शून्यमिव यदा भवति, ध्येयस्वभावावेशात्तदा समाधिरित्युच्यते।।' -व्यासभाष्यम 208 तदेव ध्यान यदा ध्येयावेशवशाद ध्यान-ध्येय-धातृभाव दृष्टि शून्यं सद्धपेयमाप्राकारं भवति तदासमाधिरूच्यते। - योगसार संग्रह, अंश 2, पृ.46 209 युजेः समाधिवचनस्य योगः समाधिः ध्यानमित्यनर्थान्तरम् ।। – राजवार्तिक, 6/1/12/505/27
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org