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________________ ध्यान और कायोत्सर्ग का सहसम्बन्ध ध्यान की स्थिरता तभी संभव है, जब साधक देहासक्ति से परे हो, क्योंकि देह का ममत्व ही ध्यान के विचलन का प्रमुख कारण है, इसीलिए आभ्यन्तर- -चर्चा में ध्यान के बाद कायोत्सर्ग की गणना की गई है। ध्यान में आत्म-स्थिरता के अभाव से यदि चित्त शुभ अथवा अशुभ परिणमन करता है, तब आस्रव एवं बन्ध की स्थिति होती है, जबकि कायोत्सर्ग सदैव संवर तथा निर्जरा का कारण है। ध्यान की उच्चतम अवस्था में साधक का मात्र अप्रमत्त ज्ञाता - दृष्टाभाव में रहना संवर का कारण है, किन्तु निर्जरा की स्थिति तो तभी उत्पन्न होती है, जब ध्यान कायोत्सर्गपूर्वक होता है। जैनकर्म-सिद्धान्तानुसार, अप्रमत्त - संयत गुणस्थानक से आगे आध्यात्मिकविकास की ओर अग्रसर साधक जैसे-जैसे प्रगति करता है, वैसे-वैसे उसके नवीन आस्रव रुकते हैं। अन्ततः, ग्यारहवें गुणस्थानक में सिर्फ साता - वेदनीय कर्म का ही आस्रव रह जाता है। मुक्ति-मार्ग की साधना में संवर जरूरी है। सत्ता में स्थित पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा के अभाव में अवनति की संभावना बनी रहती है। 353 वस्तुतः, ध्यान से अप्रमत्त साधक संवर में सफल हो जाता है, किन्तु अतीतबद्ध कर्मों की सत्ता समाप्त नहीं होती है। कर्मों की सत्ता का घात ध्यान के साथ कायोत्सर्ग करने से ही संभव होता है। आचार्य महाप्रज्ञजी के शब्दों में - "कायोत्सर्ग भेद - विज्ञान का अभ्यास है । शारीरिक और मानसिक तनाव से मुक्ति पाने के लिए कायोत्सर्ग का अभ्यास बहुत उपयोगी है।”189 यहाँ यह ज्ञातव्य है कि कायोत्सर्ग की निर्मलता, पवित्रता एवं विशुद्धि में धर्मध्यान और शुक्लध्यान का ही स्थान है। कायोत्सर्ग में स्वदोषों की क्रमशः 189 ' प्रस्तुत संदर्भ 'प्रेक्षाध्यान: सिद्धान्त और प्रयोग से उद्धृत, पृ. 16 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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