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________________ 352 . 1.शरीर–व्युत्सर्ग, 2. गण-व्युत्सर्ग, 3. उपाधि-व्युत्सर्ग और 4. भक्त-पानव्युत्सर्ग। ये सभी व्युत्सर्ग बाह्य-पदार्थों के प्रति ममत्व और आसक्ति के त्यागरूप हैं. क्योंकि बाह्यपदार्थों के पीछे ममत्व का तत्त्व छुपा हुआ रहता है। भाव-व्युत्सर्ग के भी तीन भेद हैं -1. कषाय-व्युत्सर्ग, 2. संसार-व्युत्सर्ग और 3. कर्म-व्युत्सर्ग। कषाय-व्युत्सर्ग का अर्थ है – क्रोध, मान, माया एवं लोभ का परित्याग करना। इसी तरह, संसार-व्युत्सर्ग का कारण है - नरक, देव, तिर्यंच तथा मनुष्य-योनि के प्रति किसी भी प्रकार का निदान या ममत्ववृत्ति का त्याग। यहाँ कर्म –व्युत्सर्ग को निम्न दो भागों में विभक्त किया गया है - 1. कर्मबन्धन के हेतुओं का त्याग । 2. पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा का पुरुषार्थ।। कर्म-व्युत्सर्ग द्रव्य-कर्मों की निर्जरा के रूप है, वहीं वह राग-द्वेषादि की वृत्तियों के त्यागरूप भी है। इसे भाव-व्युत्सर्ग कहते है। इस प्रकार, व्युत्सर्ग साधक की राग-द्वेषादि प्रवृत्तियों का निवारण करके उसको वीतरागता की उपलब्धि को उपलब्ध करने का पुरुषार्थ है। वस्तुतः, कायोत्सर्ग देह में रहते हुए भी विदेह होने की साधना है। कायोत्सर्ग की साधना से साधक देहातीत अवस्था की ओर अग्रसर होता है। अभिनव कायोत्सर्ग का काल कम से कम अड़तालीस मिनट और ज्यादा से ज्यादा एक वर्ष का है। बाहुबली186 ने एक वर्ष तक कायोत्सर्ग किया था। कायोत्सर्ग की साधना के तीन प्रकार हैं - खड़े होकर, बैठकर और लेटकर। 187 जैसे प्रतिदिन पौद्गलिक-देह के लिए भोजन अपेक्षित है, वैसे ही आध्यात्मिक-जीवन के लिए कायोत्सर्ग भी आवश्यक है।188 186 योगशास्त्र-3, पत्र-25 187 आवश्यकनियुक्ति - 1475 188 आवश्यकचूर्णि, पृ. 271 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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