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आलोचना की जाती है और यह विधान है कि जब तक गुरु कायोत्सर्ग सम्पन्न न करे, तब तक श्वास–प्रश्वास को सूक्ष्म कर धर्म-शुक्ल-ध्यान किया जाता है।190
ध्यान से चित्तवृत्ति का संयम होता है और चित्तवृत्ति के संयम से आत्मसजगता, आत्मजाग्रति में वृद्धि होती है। जैसे-जैसे अध्यवसायों में सावधानी बढ़ती है, वैसे-वैसे मन निष्क्रिय होता जाता है। मन की निष्क्रियता द्वारा अन्य योगों अर्थात् प्रवृत्तियों का शिथिलीकरण हो जाता है, अतः ध्यान से जैसे-जैसे ज्ञाता-दृष्टाभाव पुष्ट होता है, वैसे-वैसे ध्यान कायोत्सर्ग में परिवर्तित होता जाता है, जिससे बाह्यजगत के विषयों के प्रति अनासक्ति का तथा देह के प्रति निर्ममत्व का प्रकटीकरण होने लगता है। सत्ता में स्थित कर्म-पुद्गलों की निर्जरा की गति बढ़ जाती है, प्रतिसमय अनंतगुना कर्मदलिक क्षीण होते जाते हैं। ध्यान की चरमस्थिति कायोत्सर्ग है। इसकी साधना से विभाव समाप्त होता है तथा स्वभाव प्रकट होता
है।
ध्यान एवं कायोत्सर्ग में महत्त्वपूर्ण अन्तर -
यहाँ ध्यान और कायोत्सर्ग में जो महत्त्वपूर्ण अन्तर है, उसे संक्षिप्त रूप में समझ लेना जरूरी है।
• ध्यान में चित्तवृत्ति या अध्यवसाय स्थिर रहते हैं, जबकि कायोत्सर्ग में चित्त
अध्यवसाय-रहित या निर्विकल्प हो जाता है।
ध्यान चित्तवृत्तियों की एकाग्रता, एकलयता की साधना है, जबकि कायोत्सर्ग देह के प्रति निर्ममत्व की साधना है,192 अथवा काया के प्रति असंग होना ही कायोत्सर्ग है।
19 आवश्यकनियुक्ति, गाथा 1514 191 क) जं थिरमज्झवसाणं। - ध्यानशतक, गाथा 2; धवलाटीका, पुस्तक 13, गाथा 12
ख) स्थिरमध्यवसानं यत् तद्ध्यानं। - आदिपुराण- 21/9
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