________________
चेतना किसी विषय में आसक्त हो जाती है, तब वह उस विषय की प्राप्ति के लिए चिन्तित हो जाती है, यही आर्त्तध्यानं कहलाता है ।
इसे हम इस प्रकार से भी समझ सकते हैं कि अनुकूल अप्राप्त विषय की प्राप्ति, अथवा उपलब्ध अनुकूल विषय या संयोग के वियोग की संभावना के चिन्तन में चेतना का डूबा रहना ही आर्त्तध्यान है। 171 यह आर्त्तध्यान चित्त के विषाद अथवा अवसाद की अवस्था है ।
है । 172
उपलब्ध अनुकूल वस्तु के चोरी हो जाने में, अथवा अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति में अवरोध आने की स्थिति में जो आवेश तथा आक्रोश प्रगट होता है, वह ही रौद्रध्यान इस प्रकार, हताशा या निराशा की स्थिति आर्त्तध्यान तथा आवेगात्मकअवस्था रौद्रध्यान की स्थिति है, 173 अतः आर्त्तध्यान रागमूलक तथा रौद्रध्यान द्वेषमूलक प्रतीत होता है। छठवें गुणस्थान तक आर्त्तध्यान तथा पाँचवें गुणस्थान तक रौद्रध्यान सम्भव होते हैं। ये दोनों प्रकार के ध्यान राग-द्वेष के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण संसार के जनक तथा संसारवृद्धि के कारणभूत हैं। 174 सारांश यह है कि ये दोनों दुर्ध्यान हैं, इसलिए त्याज्य हैं। 175
इसी प्रकार, प्रशस्त - ध्यान भी दो तरह का माना है।
-
1. धर्मध्यान और
2. शुक्लध्यान ।
शुभ - ध्यान के साधक को भावना, देश, काल, आलंबन, ध्येय, लिंग तथा फलादि को जानकर या समझकर ही धर्मध्यान में प्रवृत्त होना चाहिए ।' 176 स्व-पर कल्याण के हेतुभूत विषयों पर चित्तवृत्ति का स्थिर होना ही धर्मध्यान है । यह
17' तत्त्वार्थसूत्र, 9/31
तत्त्वार्थसूत्र, 9/37
172
स्थानांगसूत्र, उद्दे. 1, स्थान 4, 63-64
174 अट्ठज्झाणं संसार वद्धण तिरिगइमूलं ।
175 आर्तं रौद्रं च दुर्ध्यानं
I
'झाणस्स भावणाओ देसं कालं
173
176
349
Jain Education International
I
ध्यानशतक, श्लो. 10
- ध्यानदीपिका, प्र. 5, श्लो. 69
—
- ध्यानशतक, श्लो. 28
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org