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________________ जब अध्यवसाय एकाग्र बन जाता है, तो चित्त की चपलता या अस्थिरता स्वतः ही समाप्त हो जाती है। योगदर्शन में भी 'योग' का वर्णन करते हुए कहा गया है कि चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है। इससे यह स्पष्ट होता है कि चित्त की निर्विकल्पता या चित्तवृत्ति की समाप्ति से ही ध्यान संभव होता है, अतः साधना के क्षेत्र में ध्यान की परमावश्यकता है। गीता के अन्तर्गत मन के संकल्प-विकल्पों के निरोध को वायु को रोकने के समान कठिन माना गया है, फिर भी मन की चंचलता को समाप्त करने का उपाय बताते हुए कहा गया है कि अभ्यास एवं वैराग्य के द्वारा उसकी चंचलता का निरोध हो सकता है । 166 167 उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है - चारों और दौड़ते हुए इस साहसिक और दुष्ट मन रूपी अश्व को कोई नहीं पकड़ पाता है, लेकिन इस मन रूपी अश्व (घोड़े ) को आगमरूपी लगाम लगा दी जाए, तो यह उन्मार्ग पर नहीं, अपितु सन्मार्ग पर चलने लगेगा | 168 संक्षिप्त में, हम यह कह सकते हैं कि चित्त की संकल्प - विकल्पात्मक गतिशीलता को निष्क्रिय बनाना ही ध्यान है । ध्यान के प्रकार ध्यान का सामान्य अर्थ है चेतना का किसी एक विषय वस्तु या बिन्दु पर केन्द्रित होना। 169 केन्द्रित विषय, प्रशस्त या अप्रशस्त - दोनों प्रकार का हो सकता है, अतः ध्यान के भी दो भेद किए गए हैं 1. प्रशस्त और 2. अप्रशस्त । अप्रशस्त-ध्यान पुनः दो प्रकार का माना गया है - 1. आर्त्त और 2. रौद्र । ' 170 जब 166 गीता, 6/34 'उत्तराध्ययनसूत्र, 23 /56 168 वही, 23 /56 167 'तत्त्वार्थसूत्र, 9/27 'स्थानांगसूत्र, च.स्था, उद्दे 1, सूत्र 60, पृ.222, 169 170 348 Jain Education International — For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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