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ध्यान और कायोत्सर्ग
सामान्यतया, आज ध्यान और कायोत्सर्ग को एक ही माना जा रहा है। जैन - परम्परा के अनेक अर्वाचीन ग्रन्थों में इन दोनों शब्दों का प्रयोग पर्यायवाची के रूप में हो रहा है, किन्तु इस सम्बन्ध में मेरे निर्देशक डॉ. सागरमल जैन ने एक लेख लिखा है, जिसमें वे लिखते हैं - 'यदि हम आगमिक - प्रमाणों के आधार पर इस विषय में गंभीरता से विश्लेषण करें, तो यह ज्ञात हो जाता है कि ध्यान और कायोत्सर्ग - दोनों भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ हैं ।'
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सबसे पहले उत्तराध्ययन के तीसवें 'तपमार्ग - अध्ययन' में तप को दो भागों में विभाजित किया है - 1. बाह्य तप और 2. आभ्यन्तरतप । पुनः आभ्यन्तर तप के छः भेदों की चर्चा से यह जानने को भी मिलता है कि ध्यान और कायोत्सर्ग- दोनों अलग-अलग हैं।
इस सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा डॉ. सागरमल जैन ने पं. कन्हैयालालजी लोढ़ा की पुस्तक 'कायोत्सर्ग' की भूमिका में की है। प्रस्तुत विवेचन में हमारा उपजीव्य वही भूमिका रही है
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ध्यान का स्वरूप
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भारतीय अध्यात्मवादी परम्परा में ध्यान-साधना का अस्तित्व अति प्राचीनकाल से रहा है। मानव का मन स्वभावतः चंचल माना गया है। जैन शास्त्रों में अध्यवसायों अर्थात् मनोभावों की एकाग्रता को ध्यान कहा गया है, 165 किन्तु ध्यान का अन्तिम लक्ष्य तो मन की चंचलता को समाप्त करना है ।
163 उत्तराध्ययनसूत्र, 30वाँ अध्ययन
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' देखें - कायोत्सर्ग, कन्हैयालाल जी लोढ़ा, प्राकृतभारती जयपुर, सन् 2007
'तत्त्वार्थसूत्र - 9 / 27
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