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________________ 350 लोक-मंगल के साथ-साथ आत्मविशुद्धि का भी साधन है। जब चित्त की वृत्ति न तो कर्त्ताभाव और न ही भोक्ताभाव में, अपितु साक्षीभाव अर्थात् ज्ञाता-दृष्टाभाव में अवस्थित होती है, तब साक्षीभाव की अवस्था ही शुक्लध्यान कहलाती है। इसको इस प्रकार समझना है कि सुच्छिन्नक्रियारूप चतुर्थ शुक्लध्यान, जो समस्त आत्मप्रदेशों की स्थिरता से युक्त अयोगी-केवली की अवस्था है, वह परमशुक्लध्यान कहलाता है।" इस ध्यान को उपलब्ध साधक सिद्ध के रूप में लोकाग्र में संस्थित हो जाता है। इसमें चित्त की परिणति शुभ और अशुभ -दोनों से परे होती है। धर्म एवं शुक्ल ये दोनों ध्यान संसार–परिभ्रमण के निवारणार्थ एवं मोक्ष के कारणभूत हैं। 179 इन प्रशस्त-ध्यानों के माध्यम से जीवात्मा अमरता, पूर्णता, वीतरागता तथा चिन्मयता को प्राप्त कर लेती है। चित्त को अशुभ परिणामों से विमुख करके शुभ अथवा विशुद्ध परिणामों में संलग्न करने के लिए ध्यान के साथ-साथ कायोत्सर्ग की साधना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि समत्व की उपलब्धि के लिए ध्यान और कायोत्सर्ग -इन दोनों की साधना आवश्यक है। कायोत्सर्ग का स्वरूप - कायादि परद्रव्य में स्थिरभाव छोड़कर जो आत्मा को निर्विकल्परूप से ध्याता है, उसे कायोत्सर्ग कहते हैं। 180 शरीर, काया या देह –यह संसार में जन्म-मरण का हेतु होने से संसार का ही अंग है। देह से संबंध स्थापित होते ही संसार से संबंध हो जाता है और यह संबंध ही समस्त बन्धनों का हेतु है।181 177 स्थिर सर्वात्मदेशस्य समुच्छिन्नक्रियं भवेत्। - ध्यानस्तव, श्लो. 19 178 क) जया कम्मं खवित्ताणं सिद्धि गच्चइ नीरओ। तया लोगमत्थयत्थो सिद्धो हवइ सासओ।। - दशवैकालिकसूत्र, 4/25 ख) समवायांगसूत्र, सम.-4 ग) औपपातिकसूत्र, (तपविवेचनान्तर्गतध्यान) 17 परे मोक्ष हेतु - तत्त्वार्थसूत्र, 9/30 180 कायाईपरदब्वे थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं। तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ णिब्बियप्पेण।। -नियमसार, गाथा 121 181 'कायोत्सर्ग व व्युत्सर्ग' – पं.कन्हैयालाल, पुस्तक से उद्धृत् पृ. 25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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