SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ _327 उनके लक्षणों का भिन्न-भिन्न रूपों से निर्देश है, ये उनके भेदों का संकेत करता है। * मूलाचार तथा ध्यानशतक में धर्मध्यान के चार भेदों आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय -इन नामों का उल्लेख समान रूप से स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसमें विषमता मात्र यह है कि मूलाचार में बारह भावनाओं के नामों का निर्देश है, जबकि ध्यानशतक में धर्मध्यान के बारह द्वारों में अनुप्रेक्षा एक पृथक् द्वार है, जहाँ यह कहा गया है कि ध्यान से पतित होने पर मुनि अनित्यादि भावनाओं के चिन्तन में उद्धत होता है, वहाँ उन अनित्यादि भावनाओं का नामोल्लेख एवं संख्या का कहीं कोई वर्णन नहीं मिलता है। * मूलाचार में शुक्लध्यान के प्रसंग में मात्र यह बताया गया है कि उपशान्तकषाय में पृथक्त्ववितर्कविचार, क्षीणकषाय में एकत्ववितर्कविचार, सयोगी-केवली में सूक्ष्मक्रिया तथा अयोगी–केवली में समुच्छिन्नक्रिया-ध्यान को ध्याया जाता है, जो चार भेदों को प्रकट करता है, जबकि ध्यानशतक में शुक्लध्यान के ध्यातव्य द्वार के अन्तर्गत स्वतंत्र रूप से शुक्लध्यान के चारों भेदों का उल्लेख उपलब्ध है। 2 ध्यानशतक, गाथा 19-23 99 मूलाचार, 5/201-205 94 ध्यानशतक, गाथा 65 95 टीकाकार हरिभद्रसूरि ने उसके स्पष्टीकरण में अनित्य, अशरण, एकत्व और संसार -इन चार भावनाओं का निर्देश किया है। इसका आधार स्थानांग का ध्यान प्रकरण रहा है-सूत्र 68 पृ.224, इसी प्रसंग में आगे हरिभद्रसूरि ने प्रशमरतिप्रकरण से बारह भावनाओं के प्ररूपक पद्यों को भी उद्धृत किया है। * उवसंतो दु पुहुत्तं झायदि झाणं ..........समुच्छिण्णं । 97 ध्यानशतक, गाथा 77-82 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy