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326 सूक्ष्मक्रिया रूप और अयोगी-केवली में समुच्छिन्नक्रिया रूप होता है, जो शुक्लध्यान के ही चार भेद हैं।
मूलाचार में ध्यान का स्वतंत्र अधिकार न होने से ध्यान का वर्णन संक्षेप में किया गया है, जबकि ध्यानशतक एक स्वतन्त्र ग्रंथ है, इसलिए उसमें विस्तार से वर्णन किया गया है। इन दोनों ग्रन्थों की कुछ समानताओं-असमानताओं की तुलना इस प्रकार है -
* जिस प्रकार मूलाचार में चार ध्यानों के नामों का उल्लेख करते हुए आर्त्त
और रौद्र-ध्यान को अप्रशस्त तथा धर्म और शुक्लध्यान को प्रशस्त माना गया है, उसी प्रकार ध्यानशतक में भी चारों के नामोल्लेख सहित आर्त्त व रौद्र का संसारवर्द्धक तथा धर्म-शुक्लध्यान को संसार-तारक माना गया है, अर्थात् दो अप्रशस्त तथा दो प्रशस्त ध्यान हैं। यह प्रशस्तता और अप्रशस्तता ही दोनों ग्रन्थों की समानता है।90
* मूलाचार में आर्तध्यान के स्वतंत्र चार भेदों का उल्लेख नहीं है, परन्तु
सामान्य तौर पर उनके स्वरूप मात्र का निरूपण किया गया है। वह स्वरूप- निरूपण ही ध्यानशतक के आर्त्तध्यान के चार भेदों से समानता को दर्शाता है।
* मूलाचार में रौद्रध्यान के भी स्वरूप का सामान्य रूप से वर्णन किया गया है,
स्वतंत्र नामोल्लेख नहीं है, फिर भी विषयक्रम के निर्देश से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि चार भेदों का संकेत किया गया है। ध्यानशतक में भी अलग से रौद्रध्यान के भेदों का नामोल्लेख तो नहीं है, पर गाथा क्रमांक-19-23 में
89 उवसंतो दु पुहुत्तं झायदि ........झाणं समुच्छिण्णं। - वही, अ.5, गाथा 207-208 90 क) मूलाचार - 5/197 ख) ध्यानशतक, गाथा-5 91 क) मूलाचार - 5/198 ख) ध्यानशतक, गाथा 6 से 9
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