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3. अज्ञानदोष और 4. आमरणान्तदोष। ध्यानशतक में इन लक्षणों के नामोल्लेख इस प्रकार हैं – 1.उत्सन्नदोष, 2. बहुलदोष, 3. नानाविधदोष और 4. आमरणदोष । 'नानाविध' नामक लक्षण में कुछ भेद जरुर दिखाई देता है, लेकिन शेष तीन लक्षणों में कोई मतभेद नहीं है। इसके बावजूद भी दोनों ग्रन्थों के टीकाकार, क्रम से, अभयदेवसूरि और हरिभद्रसूरि ने उनका जो अभिप्राय व्यक्त किया है, वह प्रायः समान ही है।”
3. धर्मध्यान :
आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय -ये चार धर्मध्यान के प्रकार हैं। स्थानांगसूत्र में उनका निरूपण बहुत सरल तथा स्पष्ट रूप से हुआ है, लेकिन ध्यानशतक में नामोल्लेख की अनुपस्थिति के बाद भी भावनादि बारह द्वारों की चर्चा में ध्यात्व्यद्वार के अन्तर्गत आज्ञा, अपाय आदि की जो चर्चा मिलती है, वह इन चारों प्रकारों की उपस्थिति का संकेत है।
स्थानांग में जहाँ धर्मध्यान के आज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि और अवगाढ़रुचि – इन चार प्रकार के लक्षणों के संदर्भ में वर्णन मिलता है, वहीं ध्यानशतक में आगम, उपदेश, आज्ञा और निसर्ग, यानी जिनकथित तत्त्वों पर श्रद्धा" रूप चार लक्षणों का वर्णन मिलता है। श्रद्धा या रुचि शब्द के अभिप्राय में
25 रुद्दस्सणं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं तं, ओसण्णदोसे, बहुदोसे, अन्नाणदोसे, आमरणदोसे -स्थानांगसूत्र, 4.स्था, 13.64सू. 223 पृ. 26 लिंगाइं तस्स उस्सण्ण-बहुल-नाणाविहाऽऽमरणदोसा। -ध्यानशतक, गाथा-26 27 अज्ञानात्-कुशास्त्रसंस्कारात् हिंसादिष्वधर्मस्वरूपेषु नरकादिकारणेषु धर्मबुद्धयाऽभ्युदयार्थ वा प्रवृत्तिस्तल्लक्षणो दोषोऽज्ञानदोषः ।
_ - स्थानांगसूत्र की टीका ध्यानशतक, सन्मार्ग प्रकाशन, पुस्तक से उद्धृत पृ. 52 नानाविधेषुत्वक्त्वक्षण-नयनोत्खननादिषु हिंसाधुपायेष्वसकृदप्येवं प्रवर्तते इति नानाविध- ध्यानशतक टीका पृ. 105 28 धम्मे झाणे चउविहे चउप्पडोयारे पं तं आणाविजते, अवायविजते, विवागविजते संठाणविजते।- स्था.4/1/65 29 आज्ञा, गाथा 45-49, अपाय गाथा 50, विपाक गाथा51, संस्थान गाथा 52-62 –ध्यानशतक, पृ.224 30 धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं.तं. आणालई, णिसग्गरूई, सुत्तरूई, ओगाढ़रूती।- स्थानांग, स्थान चतुर्थ उद्दे.1, सू.66, पृ.224 31 आगम-उवएसाऽऽणा-णिसग्गओ जं जिणप्पणीयाणं। भावणा सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तं लिंग। -ध्यानशतक, 67
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