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________________ कोई अन्तर नहीं है। आज्ञा - निसर्ग दोनों ग्रन्थों में समान है। स्थानांग में जहाँ सूत्र शब्द का प्रयोग हुआ है, वहीं ध्यानशतक में आगम शब्द का प्रयोग हुआ है। दोनों शब्दों के अर्थ में कोई भिन्नता नहीं है । जहाँ स्थानांग में अवगाढ़रुचि लक्षण बताया गया है, वहाँ ध्यानशतक में 'अवगाढ़रुचि' की जगह 'उपदेश' शब्द का उपयोग किया गया है। दोनों ही शब्दों का अर्थ समान है। स्थानांगसूत्र तथा ध्यानशतक - दोनों ग्रन्थों में वाचना, प्रतिपृच्छना और परिवर्तना - धर्मध्यान के इन तीनों आलम्बनों में समानता है । स्थानांगसूत्र में धर्मध्यान का चौथा आलम्बन अनुप्रेक्षा 2 को कहा है, परन्तु ध्यानशतक में अनुचिन्ता को चौथा आलम्बन स्वीकार किया है, 33 वह अनुप्रेक्षा का ही समानार्थक है। दोनों का ही अर्थ सूत्रार्थ का अनुस्मरण है । 32 34 स्थानांगसूत्र में धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख है - 1. एकानुप्रेक्षा, 2. अनित्यानुप्रेक्षा, 3. अशरणानुप्रेक्षा और 4. संसारानुप्रेक्षा । ध्यानशतक में तो धर्मस्थान के बारह द्वारों में से अनुप्रेक्षा नामक एक स्वतंत्र द्वार है और उसके संबंध में मात्र इतना कहा गया है कि मुनि को सतत अनित्यादि भावनाओं में रत रहना चाहिए । अनित्यादि भावनाएं कितनी हैं इसका निर्देश अनुपलब्ध है । 35 आचार्य हरिभद्रसूरि ने ध्यानशतक की वृत्ति में लिखा है कि 'अनित्यादि में जो आदि शब्द है, उससे यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि अशरण, एकत्व और संसार - भावनाएं उसमें समाहित हैं, साथ ही आगे उन्होंने यह भी निर्देश किया है कि श्रमण को ‘इष्टजनसम्प्रयोगर्द्धिविषयसुखसम्पदः इत्यादि ग्रन्थ के आश्रय से बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन-मनन करना चाहिए । स्थानांगसूत्र में चार अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख है, किन्तु ध्यानशतक में ऐसा कुछ भी नहीं है। यदि ध्यानशतककार जिनभद्रगणि को 32 धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पं तं वायणा, पडिपुच्छणा परियट्टणा अणुप्पेहा । - स्थानांग, स्था. 1, उद्दे. 1 पृ. 67 33 आलंबणाइ वायण–पुच्छण-परियट्टणाऽणुचिंताओ | - ध्यानशतक, गाथा 42 34 धम्मस्सणं झाणस्सचत्तारि अणुप्पेहाओ पं तं - एगाणुप्पेहा, अणिच्चाणुप्पेहा, असराणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा । 35 णिच्चमणिच्चाइ चिंतणा परमो ।। - Jain Education International 316 1 ध्यानशतक, 65 36 हरिभद्रसूरि ने इस प्रारम्भिक वाक्य के द्वारा प्रशमरतिप्रकरण नामक ग्रन्थ की ओर संकेत किया है, वहाँ इष्टजनसम्प्रयोगर्द्धिगुणसम्पदः इत्यादि 12 श्लोकों में बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन किया गया है। . For Personal & Private Use Only - स्था., स्था. 4, उद्दे. 2, सू, 68 पृ. 224 www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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