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________________ 314 धनादि से जहाँ सम्बद्ध है, वहीं चतुर्थ आर्तध्यान उस धनादि से प्राप्त होने वाले भोगों से सम्बद्ध है। इस प्रकार इन दोनों ग्रन्थों में कुछ अंतर है। शास्त्रान्तर में द्वितीय और चतुर्थ के एक जैसे होने से या उनमें भेद न रहने से उन्हें तीसरा आर्तध्यान माना गया है तथा चतुर्थ आर्त्तध्यान को निदान के रूप में स्वीकार किया गया है।" यह कहते हुए उन्होंने आगे ध्यानशतक की आर्तध्यान से सम्बद्ध चारों गाथाओं (6–9) को भी उद्धृत कर दिया है। इस प्रकार, शास्त्रान्तर से उनका अभिप्राय तत्त्वार्थसूत्र और ध्यानशतक का ही रहा हुआ प्रतीत होता है। आर्तध्यान के क्रन्दनता, शोचनता और परिदेवनता ये तीन लक्षण स्थानांग तथा ध्यानशतक में प्रायः एक समान है। परन्तु स्थानांग में जहाँ 'तेपनता20 का वर्णन है, वहाँ ध्यानशतक में 'ताडन" शब्द को ग्रहण किया है। स्थानांगसूत्र की टीका में अभयदेवसूरि ने 'तिपि' धातु को क्षरणार्थक मानकर तेपनता शब्द का अर्थ अश्रु बहाना अथवा अश्रु-विमोचन किया है। 2. रौद्रध्यान : स्थानांगसूत्र में आर्तध्यान की तरह ही रौद्रध्यान के भी चार प्रकारों का उल्लेख किया गया है - 1. हिंसानुबन्धी, 2. मृषानुबन्धी, 3. स्तेयानुबन्धी और 4. विषयसंरक्षणानुबन्धी। ध्यानशतक में उनके नामोल्लेख का अभाव है, परन्तु स्वरूप-चर्चा से इनके नामों का बोध जरूर हो जाता है। 24 स्थानांग में जो रौद्रध्यान के लक्षण बताए गए हैं वे इस प्रकार हैं -1. उत्सन्नदोष, 2: बहुदोष, 17 द्वितीयं वल्लभधनादिविषयम् चतुर्थ तत्संपाद्यशब्दादिभोगविषयमिति भेदोऽनयोर्भावनीयः । शास्त्रान्तरे तु द्वितीय-चतुर्थयोरेकत्वेन तृतीयत्वम्, चतुर्थ तु तत्र निदान मुक्तम्। उक्तं च - (ध्या.श.6-9) स्थानांगवृत्ति, ध्यान श. सन्मार्ग प्र., पृ. 29 से उद्धृत 18 निदानं च। - तत्त्वार्थसूत्र 9/33 19 प्रस्तुत संदर्भ ध्यानशतकं, सन्मार्ग प्रकाशन अहमदाबाद, पुस्तक के ध्यानशतक के तुलनात्मक अध्ययन के पृ. 104-105 से उद्धृत 20 अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं तं जहा-कंदणता, सोयणता, तिप्पण्णता, परिदेवणता -स्थान 4, उ.1, सू.62, पृ. 222 । तस्सऽक्कंदण-सोयण-परिदेवण-ताडणाई लिंगाई.... || - ध्यानशतक, गाथा 15 2 तेपनता-तिपेः क्षरणार्थत्वादुविमोचनम्। – स्थानांगटीका " रोहे झाणे चउन्विहे पं तं- हिंसाणुबन्धि, मोसाणुबन्धि, तेणाणुबन्धि, सारक्खणाणुबन्धि – स्थानांगसूत्र, उद्दे 1, सूत्र 63, पृ. 223 24 सत्तवह-वेह-बंधण-डहणं...सव्वाभिसंकणपरोवघायकलुसाउलं चित्तं – ध्यानशतक, गाथा 19-22 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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