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________________ 313 1. आर्तध्यान : स्थानांगसूत्र में आर्तध्यान के प्रथम प्रकार को परिभाषित करते हुए यह कहा गया है कि अनभीष्ट वस्तु का संयोग होने पर उसको दूर करने का बार-बार चिन्तन करना 'अमनोज्ञ आर्तध्यान' है।" इसका और ज्यादा स्पष्टीकरण करते हुए ध्यानशतक में लिखा है कि द्वेषवशात् अशुभ परिणति वाले जीव को जब अमनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्शादि इन्द्रिय के विषयों का संयोग प्राप्त होता है, तब इन सभी विषयों का विरह अथवा वियोग कैसे हो ? किस तरह ये सभी मुझसे पृथक् होंगे ? और वियोग हो जाने के बाद भविष्य में पुनः संयोग न हो, सतत उसका अनुचिन्तन करना आर्तध्यान का प्रथम प्रकार है। इसी प्रकार, स्थानांग में मनोज्ञ और आतंक नामक आर्त्तध्यान के दूसरे एवं तीसरे प्रकार को निर्दिष्ट किया है। ध्यानशतक में भी इन दोनों प्रकारों का स्पष्ट उल्लेख है, अन्तर केवल इतना है कि स्थानांग में जिसे दूसरा आर्त्तध्यान कहा गया है, ध्यानशतक में उसका क्रम तीसरे स्थान पर है और स्थानांग में जिसे आर्तध्यान का तीसरा प्रकार कहा है, उसका ध्यानशतक में दूसरा क्रम है। स्थानांगसूत्र में आर्त्तध्यान के चौथे प्रकार का निरूपण करते हुए कहा गया है कि काम-भोग का संयोग होने पर उसका संयोग बना रहे -ऐसा बार-बार चिन्तन करना प्रीतिकारक आर्तध्यान है, 15 परन्तु ध्यानशतक में देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि के रूप, ऋद्धि आदि की याचना करना --ऐसा निदानरूप आर्त्तध्यान का चौथा प्रकार है। स्थानांगसूत्र के टीकाकार अभय सूरि ने अपनी टीका में इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि द्वितीय आर्तध्यान अभीष्ट ।। अमणुन्नसंपओगपउत्ते तस्स विप्पओगसतिसमण्णांगते यावि भवति। - स्थानांगसूत्रवृत्ति, सूत्र-6, पृ.28 12 अमणुण्णाणं सद्दाइ ......... || - ध्यानशतक गाथा गाथा 6, 13 मणुनसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसतिसमण्णागते यावि भवति 2, आयंकसंपओगसंपउत्ते तस्सविप्पओगसतिसमण्णागते यावि भवति - स्थानांगसूत्र-4 स्था.. 2 उद्दे.. 6सू. 222 पृ. 1 इट्टण विसयाईण ....... | तह सूल-सीसरोगाइवेयणाइ ... | – ध्यानशतक गाथा 7 और 8 15 परिजुसितकामभोगसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसतिसमण्णागते यावि भवति।। - स्थानांग, स्था. 4. प्र.उद्दे, सू. 61 पृ. 222 । देविंद-चक्कवट्टित्तणाई गुण-रिद्धिपत्थणमईयं ..... || -ध्यानशतक, गाथा 9 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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