SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . 312 अपनी कुशाग्रबुद्धि-बल द्वारा आगम-ग्रन्थों को व्यवस्थित करके पुस्तकारूढ़ किया था। स्थानांगसूत्र के दस अध्ययन हैं। दस अध्ययनों में दूसरा, तीसरा, चौथा और पाँचवा - ये चार अध्ययन उद्देशकों में विभाजित हैं। द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अध्ययन के चार-चार एवं पाँचवे के तीन उद्देशक हैं, शेष छह अध्ययनों में एक-एक उद्देशक हैं। इस प्रकार, उद्देशकों की कुल संख्या इक्कीस है। ‘नंदीसूत्र' के अनुसार, स्थानांगसूत्र के बहत्तर हजार पद माने गए हैं। परन्तु वर्तमान में यह ग्रन्थ 3770 श्लोक-परिमाण ही है। इसकी विषय-वस्तु का विवेचन संख्याओं के क्रमानुसार स्थानों के रूप में किया गया है। जिसमें एक-एक पदार्थों की विवेचना है, वह 'प्रथम स्थान' है, जैसे - आत्मा एक है, दण्ड एक है, क्रिया एक है, लोक एक है, इत्यादि। जिसमें दो-दो पदार्थों का वर्णन है, वह 'द्वितीय स्थान' है, जैसे - जीव-अजीव, त्रस-स्थावर, जीवक्रिया अजीवक्रिया, सम्यक्त्वक्रिया-मिथ्यात्वक्रिया; इत्यादि। इस तरह, अन्तिम दस स्थान तक क्रमशः उत्तरोत्तर संख्या के क्रम से विषय-वस्तुओं का उल्लेख हुआ है। इसी 'स्थानांगसूत्र' के चतुर्थ-स्थान के अन्तर्गत प्रथम उद्देश्य में चार ध्यानों का सुन्दर विवेचन मिलता है। इसमें प्रत्येक ध्यान के प्रकारों, उपप्रकारों, लक्षण, आलम्बन तथा अनुप्रेक्षा का वर्णन किया गया है। उपर्युक्त सभी प्रकारों, उपप्रकारों आदि का उल्लेख 'ध्यानशतक' में भी मिलता है। हम यहाँ उसे कुछ विस्तार से स्पष्ट करेंगे। वलहीपुरम्मि नयरे, देवढिपमुहेण समणसंघेण। पुत्थइ आगमु लिहियो, नवसय असीआओ विराओ।। -प्रस्तुत गाथा स्थानांगसूत्र।। सं.-मुनिमधुकर ।। पुस्तक की प्रस्तावना से उद्धृत, पृ. 26 'नंदीसूत्र, 83 ''स्थानांगसूत्र' – ||सं.-मुनि मधुकर ।। की प्रस्तावना से उद्धृत, पृ. 30 एगे आया। एगे दंडें। एगा किरिया। एगे लोए। -स्थानांगसूत्र, सं.मुनिमधुकर, स्था.1, पृ.2-3 ___ जयत्थि णं लोगे तं सव्वं-दुपओवआरं, तं जहा-जीवच्चेव-अजीवच्चेव । तसे चेव-थावरे चेव। दो किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-जीवकिरिया चेव-अजीवकिरियाचेव। जीवकिरिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सम्मत्तकिरियाचेव-मिच्छत्तकिरियाचेव। -वही, स्था.1, उद्दे.1, सूत्र 1-3, पृ. 24-25 1० स्थानांगसूत्र, सं.-मुनिमधुकर, चतु.स्था, प्र.उद्देशक, सू. 60-72, पृ. 222-226 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy