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________________ 'स्वामीकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा' की टीका में एक बात और स्पष्ट की है कि रूपस्थ - ध्यान को साधक दो प्रकार से ध्या सकता है- 1. स्वगत और 2. परगत । स्वयं की आत्मा का ध्यान है - स्वगत और अरहन्त आदि का आलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है, वह परगत है । ' 169 · प्रवचनसारोद्धार 70, स्वामीकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा 71, [171 श्रावकाचारसंग्रह " आदि ग्रन्थों में लिखा है कि समवसरण में विराजमान अरिहंत परमात्मा का जिसमें ध्यान किया जाता है, वह रूपस्थध्यान कहलाता है । ‘योगशास्त्र' में रूपस्थध्यानवर्ती के लक्षण का निरूपण करते हुए लिखा है कि रूपस्थध्यान को ध्याने वाला ध्याता राग-द्वेषादि कषायप्रवृत्ति से परे होता है, योगमुद्रा से युक्त होने के कारण नेत्रों से असीम आनंद एवं करुणा का झरना प्रवाहित होता है। विशेष गुणों से युक्त जिनेन्द्र के प्रतिबिम्ब के शान्तचित्तवृत्ति से ध्यान में निमग्न रहता है। 173 सारांश यह है कि प्रस्तुत ध्यान का ध्याता राग- -द्वेषादि कषायभावों से रहित वीतराग का ही ध्यान करता है, क्योंकि रागी के ध्यान से रागी एवं वीतरागी के ध्यान से साधक वीतरागी बनता है। 174 इसका मूल कारण यह है कि जीव जिनजिन अध्यवसायों के अधीन होता है, उन उन अध्यवसायों में एकाग्र हो जाता है ।" 169 'स्वामीकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, पृ. 377 170 प्रवचनसारोद्वार, गा. 441-450 175 17 स्वामीकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा, शुभचन्द्र टीका, पृ. 377 172 श्रावकाचार संग्रहं, भाग - 2, पृ. 459 राग-द्वेष- महामोह-विकारैकलंकितम् । शान्तं कान्तं मनोहारि सर्वलक्षणलक्षितम् ।। तीर्थिकैर परिज्ञात-योगमुद्रा मनोरमम् । अक्ष्णोरमन्दमानन्दनिःस्यन्दं दददद्भुतम्।। जिनेन्द्रप्रतिमारूपम् अपि निर्मल मानसः । निर्निमेषद्दशां ध्यायन् रूपस्थध्यानवान् भवेत । । - योगशास्त्र, प्र.9, श्लो. 8,9,10 174 वीतरागो विमुच्यते वीतरागं विचिन्तयन् । शगिणं तु समालम्व्य रागीस्यात् क्षोमणादिकृत । । - योगशास्त्र - 9/13 175 येनयेन हि भावेन युज्यते यन्त्रवाहकः । तेन तनमयतां यति विश्वरूपो मणिर्यथा । । - 173 298 Jain Education International वही - 9/14 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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