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________________ रुपातीत ध्यान का स्वरूप रूप से अतीत का अर्थ होता है कि रंग-रूप से रहित, निरंजन, ज्ञानयुक्त शरीर, आनंदस्वरूप के स्मरण करने को रूपातीत ध्यान कहते हैं। शुद्ध - पवित्र, कमल से रहित परमात्मा का ध्यान ही रूपातीत ध्यान है । 176 जिसमें ध्याता अपनी आत्मा को परमात्मा समझकर स्मरण करता है और उसी में लीन बन जाता है तथा अपने कर्मों का क्षय करके प्रत्यक्ष रूप परमेष्ठी बन जाता है। 177 'योगशास्त्र' में लिखा है कि इन्द्रियों के विषयों से परे, अर्थात् वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से रहित, आकार-रहित, अनंतज्ञान, अनंत - दर्शन, अनंत - चारित्र आदि गुणों से अलंकृत, चिदानन्दमय, निरंजन, अष्ट- कर्मों को क्षय करके जो सिद्ध, बुद्ध हो चुके – ऐसे सिद्ध - परमात्मा का ध्यान रूपातीत ध्यान कहलाता है। 7 178 स्वामीकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा टीका' 179 और श्रावकाचार - संग्रह 180 में भी इसी बात का समर्थन मिलता है कि इस ध्यान में अवस्थित साधक प्रथम तो अपने गुणों को स्मृतिपटल पर लाकर उनका स्मरण करता है, तत्पश्चात् सिद्धों के गुणों का चिन्तन-मनन करता है । उन सिद्ध - बुद्ध, निरंजन - निराकार, सिद्ध-परमात्मा के चरणों का आश्रय लेकर उनका निरंतर ध्यान करता रहता है। उस समय साधक (योगी) की ध्याता और ध्यान- इन दोनों से परे ध्येयरूप सिद्ध - परमात्मा के साथ एकरूपता हो जाती है। 181 176 चिदानन्दमयं शुद्धममूर्तं ज्ञानविग्रहम् । स्मरेद्यत्रात्मनात्मानं तद्रूपातीतमिष्यते ।। 177 7 तद्गुणग्रामसंपूर्ण तत्स्वभावैकभावितम् । कृत्वात्मानं ततो ध्यानी योजयेत्परमात्मनि ।। 178 8 अमूर्त्तस्य चिदानन्द - रूपस्थ परमात्मनः । निरंजनस्य सिद्धस्य ध्यानं स्याद् रूपवर्जितम् ।। - 181 ज्ञानार्णव, 37/16 Jain Education International वही - 37/19 179 स्वामीकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, पृ. 378 180 श्रावकाचार - संग्रह, भाग 2, पृष्ठ 459 इत्यजस्रं स्मरन् योगी तत्स्वरूपावलम्बनः । तन्मयत्वमवाप्नोति ग्राह्यग्राहकवर्जितम् ।। - योगशास्त्र, 10/2 ख) आकर्षण वशीकारः ... ततः समरसीभाव - सफलत्वान्न विभ्रमः । । - तत्त्वानुशासन नामक ध्यानशास्त्र, 211-212 299 योगशास्त्र - 10/1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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