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________________ 297 महापुरुष को याद करके जो ध्यान किया जाता है, वह ध्यान ही रूपस्थ-ध्यान है।162 'ध्यानस्तव' के अनुसार जो. योगीराज आपके नाम मात्र का तथा भिन्न श्वेत प्रतिबिम्ब का ध्यान करता है, उसको रूपस्थ-ध्यान कहा जाता है। 163 इसका और स्पष्टीकरण करते हुए भास्करनन्दी लिखते हैं कि जो शुद्धस्वरूप स्थित प्रातिहार्य से युक्त अरहन्त जैसे अपने शरीर का ध्यान करता है, उसे भी रूपस्थध्यान कहते हैं।164 'ध्यानसार' में रूपस्थ-ध्यान का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार लिखते हैं कि शुद्ध स्फटिक के समान देदीप्यमान भामण्डलादि अष्टप्रातिहार्ययुक्त जिन-रूप का चिन्तन करना रूपस्थ-ध्येय कहलाता है।165 'स्वाध्यायसूत्रानुसार' ज्ञान-दर्शनादि गुणों से युक्त, अर्हत्-परमात्मा के स्वरूप को आश्रय बनाकर किया जाने वाला ध्यान रूपस्थ है। दूसरे शब्दों में, समस्त अरहंत--परमात्मा के द्रव्य-गुण-पर्याय का भी चिन्तन-मनन करना, वे केवली हैं; सर्वज्ञ हैं, क्योंकि वे ज्ञानावरणीयादि चार घातीकर्मों का क्षय कर चुके हैं। ऐसे शुद्ध अरिहंत-परमात्मा को केन्द्र में रखकर ध्यान करना ही रूपस्थ-ध्यान है।167 'सिद्धहेमशब्दानुशासन-बृहद्वृत्ति' में लिखा है कि अरिहन्त की प्रतिमा का ध्यान रूपस्थ-प्रणिधान है।168 162 नवकेवललब्धिश्रीसंभवं स्वात्मसंभवम्। तुर्यध्यानमहावह्नौ हुतकर्मेन्धनोत्करम्।। रत्नत्रय सुधास्यन्दमन्दीकृतभव भ्रमम्। वीतसंगं जिताद्वैतं शिवं शान्तं च शाश्वतम।। सर्वज्ञं सर्वदं सार्वं वर्धमानं निरामयम्। नित्यमव्ययमव्यक्तं परिपूर्ण पुरातनम्।। -ज्ञानार्णव, 36/24,25,26,30 163 नामाक्षरं शुभं प्रतिबिम्ब च योगिनः । ध्यायतो भिन्नमीशेदं ध्यानं रूपस्थमीडितम् ।। -ध्यानस्तव, श्लो.30 164 शुद्धं शुभं स्वतो भिन्नं प्रातिहार्यदिभूषितम् । देव स्वदेहमर्हन्तं रूपस्थं ध्यान तोऽथवा।। -वही,श्लोक 31 165 भामण्डलादियुक्तस्य शुद्धस्फटिकभासिनः । चिन्तनं जिनरूपस्य रूपस्थं ध्येयमुच्यते।। -ध्यानसार, 119 166 ज्ञानादिगुणान्विताऽर्हत्स्वरूपाश्रितं रूपस्थम् ।। – स्वाध्यायसूत्र, अधि.10, सूत्र 16 16' प्रस्तुत संदर्भ 'बातचीतःध्यान योग' -डॉ.नेमीचंद जैन, पुस्तक से उद्धृत, पृ.11 168 प्रतिमास्थस्य' (सिद्धहेमशब्दानुशासन-बृहदवृत्ति), प्रस्तुत संदर्भ ध्यानविचार-सविवेचन' पुस्तक से उद्धृत, पृ. 156 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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