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________________ 2/+ 7. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान - आध्यात्मिक-विकास की इस भूमिका में साधक सतत आत्मरमणता, आत्मसजगता में अवस्थित रहता है। देह में रहते हुए भी विदेहता में रमण करता है और प्रमाद पर काबू करता है, फिर भी कुछ दैहिक-उपाधियों के कारण साधक विचलित हो जाता है। कोई भी सामान्य साधक अड़तालीस मिनट के अन्दर की अवधि तक देह के प्रति अनासक्त नहीं रह सकता है, अतः इस गुणस्थान में साधक का ठहरना अल्पकालीन होता है। अप्रमत्त-संयत-गुणस्थानवर्ती साधक सभी प्रमादों के कारणों (जिनकी संख्या 37,500 मानी गई है) से बचता है।85 भगवतीसूत्र के अनुसार –“एक जीव के एक भव में अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान का समस्त काल-परिमाण देशोनकरोड़ पूर्व माना गया है, परन्तु यहाँ दोनों गुणस्थान (छठवां प्रमत्तसंयत तथा सातवां अप्रमत्तसंयत) का काल-मान संयुक्त रूप से जानना चाहिए। इस गुणस्थान में शुभ धर्मध्यान होता है, साथ ही रूपातीत ध्यान की महत्ता के कारण आंशिक रूप से इसमें शुक्लध्यान भी सम्मिलित रहता है। इस गुणस्थान में रहने वाले जीव में षडावश्यकादि क्रियाओं का अभाव होने पर भी श्रेष्ठ ध्यान के योग्य होने से आत्मशोधन की वृत्ति रहती है। इस गुणस्थान में श्वेताम्बर- परम्परानुसार धर्मध्यान और दिगम्बर-परम्परानुसार शुक्लध्यान के प्रथम दो चरण ही संभव हैं। 8. अपूर्वकरण-गुणस्थान - ___ यह आध्यात्मिक-विकास की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस अवस्था में अधिकांश घाती कर्म-प्रकृतियों का क्षय या उपशम करने से साधक एक विशेष प्रकार की आनंदानुभूति को महसूस करता है। जिसका पूर्व में कभी अनुभव नहीं किया, उसे 85 25 विकथाएँ, 25 कषाय और नोकषाय 6, मनसहित पाँचों इन्द्रियाँ, 5 निद्राएँ, 2 राग और द्वेष ___-इन सबके गुणनफल से 37500 की संख्या बनती है। 86 अपमत्तसंजयस्सणं भंते ! अप्पमत्तू संजमे वट्टमाणस्स सत्वा वि य णं अप्पमत्तद्धा कालतो-केवच्चिरं होति। मंडियापुता! एक जीव पडुच्च जहन्नेणं अन्तोमुहूतं उक्कोसेणं पुवकोडी देसूणा! णाणा जीवे पडुच्च सव्वद्धं - भगवतीसूत्र -3/3/154 87 चतुर्थानां कषाया.....सद्धयानसाधनारम्भ, कुरूते मुनिपुंगव धर्मध्यानं भवत्यत्र, मुख्यवृत्या जिनोदितम् । रूपातीततया शुक्लमपि स्यादंशमात्रतः ।। इत्येतस्मिन्.....सतत ध्यानसद्योगाच्छुद्धिः स्वाभाविको यतः ।। - गुणस्थानक्रमारोह, गा. 32-36 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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