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________________ 275 अपूर्व कहते हैं, या यह भी कह सकते हैं कि एक प्रकार की आत्मशक्ति का प्रकटीकरण हाना। इस गुणस्थान में प्रवर्तित साधक अधिकांशः विषय-विकारों, वासनाओं से मुक्त होता है। संज्वलन-कषाय, अर्थात् अल्पमात्रा में माया और लोभ की वृत्ति रहती है। बादर, अर्थात् स्थूल-कषाय की निवृत्ति के कारण इसको निवृत्ति-बादर-गुणस्थान भी कहते हैं। 'गुणस्थानक्रमारोह' के अनुसार, अप्रमत्तसंयत-गुणस्थानवर्ती साधक अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा के द्वारा जब आत्म-विकास की दिशा में आगे बढ़ता है तब वह अष्टम अपूर्वकरण-गुणस्थान में प्रवेश करता है।88 अष्टम-गुणस्थानवर्ती साधक को निम्नलिखित पांच बातों को करने की अपूर्व योग्यता प्राप्त होती है, वे, इस प्रकार हैं 1. स्थितिघात -उदय में आने वाले कर्मदलिकों को उदीरणा से घटाकर कम करना स्थितिघात है। 2. रसघात – एकत्रित हुए कर्मदलिकों के फल देने की तीव्र शक्ति को मंद करना रसघात है। 3. गुणश्रेणी - जिन कर्मदलिकों के फल देने की तीव्र शक्ति को मंदरस करके उदय से हटाया है, उनको समय क्रम से अन्तमुहूर्त के भीतर स्थापित करना गुणश्रेणी है। ___4. गुणसंक्रमण -पूर्व में बंधी हुई अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान में बन्ध रही शुभ प्रकृति के रूप में परिणत करना गुणसंक्रमण है। इस गुणस्थान में श्वेताम्बरपरम्परानुसार धर्मध्यान और दिगम्बर–परम्परानुसार धर्मध्यान और शुक्लध्यान के प्रथम ही चरण संभव हैं। 88 अपूर्वात्मगुणाप्तित्वादपूर्वकरणं मतम्।। – गुणस्थानक्रमारोह, पृ.26 १० उपरितनस्थितेर्विशुद्धिवशादपवर्तनाकरणेनावतारितस्य दलिकस्यान्तर्मुहूर्त।। – कर्मग्रन्थाः (कर्मस्तव) सटीकाश्चत्वारः प्राचीनाः, पृ.4 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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