________________
6. प्रमत्तसंयतगुणस्थान
इस गुणस्थानवर्ती जीव की परिणति पाँचवें गुणस्थान अर्थात् देशविरतसम्यग्दृष्टि की अपेक्षा विशुद्ध होती है । पाँचवें गुणस्थान में जीव सावद्य - पापक्रियाओं का आंशिक रूप से त्याग करता है, परन्तु इस गुणस्थान में जीव पापाचरण से पापजनक–व्यापारों से सर्वथा विमुख हो जाता है । दिगम्बर - परम्परानुसार, इसमें बाह्य परिग्रह से परिपूर्ण - निवृत्ति होती है, साथ ही वह भीतरी, आभ्यन्तर - र-परिग्रह की निवृत्ति के लिए सतत प्रयत्न करता रहता है, निजस्वरूप में अवस्थित होने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। जब जीव प्रमादावस्था में रहता है, तब वह छठवें गुणस्थान में रहता है, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि वह छठवें गुणस्थान में ही रहे। जब अध्यवसाय अप्रमत्त, देहातीत, आसक्ति को छोड़कर ज्ञाता-दृष्टाभाव में रहे, तो वह सातवें गुणस्थान में चला जाता है। छठे गुणस्थान की स्थिति दोलायमान स्थिति है। जीव कभी छठे तो कभी सातवें गुणस्थान में आता-जाता रहता है। यह उतार-चढ़ाव देशोनकोटिपूर्व तक ही रहता है। इसमें धर्मध्यान की मात्रा बढ़ जाती है। इस गुणस्थान में जीव साधनापथ में परिचारण करता हुआ आगे बढ़ना तो चाहता है, लेकिन प्रमाद उसमें बाधक बना रहता है। जब श्रमण लक्ष्य के प्रति सतत जागरूक रहता है, तो सातवें गुणस्थान में प्रवेश कर लेता है और देहभाव, आसक्ति, प्रमाद की वृत्ति होने पर पुनः छठवें गुणस्थान में आ जाता है । इस गुणस्थान में प्रवेश करने के लिए साधक को पन्द्रह कर्मप्रकृतियों का नाश करना जरूरी है। वे इस प्रकार हैं
अनंतानुबंधी - चतुष्क, अप्रत्याख्यानी - चतुष्क, प्रतयख्यानी - चतुष्क, मिथ्यात्व - मोहनीय, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह । 84 श्वेताम्बर - परम्परानुसार, इस गुणस्थान तक आर्त्तध्यान बना रह सकता है । रौद्रध्यान केवल चैतसिक स्तर पर अल्प- समय के लिए संभव होता है।
-
83 क) गुणस्थान क्रमारोह, गा. 27, 28–31
ख) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), गा. 32
84 गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण - डॉ.सागरमल जैन, पुस्तक से उद्धृत, पृ.60
Jain Education International
273
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org