SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 268 अनुयोगसार 65 में इसका समाधान इस प्रकार मिलता है -“मिथ्यादर्शनलब्धि, मति–अज्ञानलब्धि, श्रुत-अज्ञानलब्धि आदि भी कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होती हैं। मिथ्यादृष्टि-जीव का मिथ्यादर्शन एवं मिथ्या-ज्ञान क्षायोपशमिक-भाव होने से मिथ्यात्व को भी गुणस्थान कहा गया है।"66 पं. सुखलालजी के शब्दों में -"प्रथम गुणस्थान में रहने वाली ऐसी अनेक आत्माएँ होती हैं, जो राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को थोड़ा-सा दबाए हुए होती हैं। वे यद्यपि आध्यात्मिक-लक्ष्य के सर्वदा अनुकूलगामी नहीं होती, तो भी उनका बोध व चारित्र अन्य अविकसित आत्माओं की अपेक्षा अच्छा ही होता है। यद्यपि ऐसी आत्माओं की अवस्था आध्यात्मिक-दृष्टि से सर्वथा आत्मोन्मुख न होने के कारण मिथ्यादृष्टि, विपरीतदृष्टि या असदृष्टि कहलाती है, तथापि वह सदृष्टि के समीप ले जाने वाली होने के कारण उपादेय मानी गयी हैं, अतः यह मानना होगा कि इस गुणस्थान का मुख्य लक्षण मिथ्यादर्शन अथवा मिथ्याश्रद्धान है। इसमें मात्र आर्त्त या रौद्र-ध्यान ही होते हैं। 2. सास्वादन-गुणस्थान - इस गुणस्थान में आत्मा पतनोन्मुख होती है, उसका चित्रण है। इस अवस्था में सम्यक्त्व का क्षणिक आस्वादन रहता है, इसलिए इस गुणस्थान को सास्वादन गुणस्थान कहा जाता है। इसमें वमित हो रहे सम्यक्त्व का बहुत ही अल्पतम 65 "खओवसमिआ मइ अण्णाणलद्धी, खओवसमिआ सय अण्णाणलद्धी, खओवसमिआ विभंगणाणलद्धी, खओवसमिआ, चक्खुदंसणलद्धी, खओवसमिआ अचक्खु-दंसणलद्धी, ओहिदसणलद्धी एवं समदंसण- लद्धी, मिच्छादसणलद्धी, सम्ममिच्छादसणलद्धी एवं पण्डियवीरियलद्धी, बालवीरियलद्धी, बाल- पण्डियवीरियलद्धी, खओवसमिआ सोइन्द्रियलद्धी, जाव खओवसमिआ पासेन्दीयलद्धी...... | __-अनुयोगद्वाराणि, पत्रांक-116, सू. 126 66 'प्राकृत एवं संस्कृत-साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा', -साध्वी डॉ.दर्शनकला, प्रथम अध्याय, पृ. 7 67 जैन बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ.451 68 क) सहेव तत्त्वश्रद्धानं रसास्वादनेन वर्तते इति सास्वादनः। -समवायांगवृत्तिपत्र-26) . ख) गुणस्थान-क्रमारोह - 12 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy