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समय के लिए आस्वादन होता है, इसी हेतु इसको सास्वादन- गुणस्थान के नाम से निर्दिष्ट किया है। इसका काल-परिमाण न्यूनतम एक समय आर अधिकतम छः आवलिका का होता है । इस अवस्था में जीव अवश्यमेव मिथ्यात्व को पाने वाला होता है फिर भी जैसे खीरपान के पश्चात् उल्टी होने के बाद भी खीर का आंशिक स्वाद आता रहता है, ठीक वैसे ही सम्यक्त्व के अध्यवसायों को छोड़ने के बाद भी मिथ्यात्व की ओर जाते हुए जीव को कुछ समय के लिए ही सही, पर सम्यक्त्व का आस्वाद रहता है 59
गोम्मटसार में लिखा है कि जैसे पर्वत से जमीन तक पहुंचने से पूर्व जो बीच का समय है, वह न तो पर्वत पर रुकने का है और न जमीन पर ठहरने का, वह तो बीच की स्थिति का अनुभवकाल है, वैसे ही अनंतानुबन्धीकषायचतुष्क में से किसी का भी उदय होने पर सम्यक्त्व को त्यागकर मिथ्यात्व के अनुदय तक बीच के अनुभव - काल में जो अध्यवसाय होते हैं, वही सास्वादन- गुणस्थान है।"
डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में - "जिस प्रकार मिष्ठान्न खाने के अनन्तर वमन होने पर वमित वस्तु का एक विशेष प्रकार का आस्वादन होता है, उसी प्रकार यथार्थ - बोध हो जाने पर मोहासक्ति के कारण जब पुनः अयथार्थता (मिथ्यात्व) का ग्रहण किया जाता है, तो उसे ग्रहण करने के पूर्व थोड़े समय के लिए उस यथार्थता का एक विशिष्ट प्रकार का अनुभव बना रहता है। यही पतनोन्मुख अवस्था में होने वाला यथार्थता का क्षणिक आभास या आस्वादन 'सास्वादन- गुणस्थान है ।"71 दिगम्बर-परम्परा में इसका नाम 'सासादन- गुणस्थान' है । इस गुणस्थान में मात्र आर्त्त एवं रौद्रध्यान ही संभव है ।
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69 सासादनं तत्र आयमौपशमिक सम्यक्त्व लक्षणं सादयति अपनयति आसादनम् अनन्तानुबन्धी कषायवेदनम् .... ततः सहासादनेन वर्तते इति सासादनम् । तथाऽत्रापि गुणस्थाने मिथ्यात्वभिमुखतया सम्यक्त्वस्योपरि व्यलीकचित्तस्य पुरुषस्य सम्यक्त्वमुद्धमतस्तद्रसास्वादो भवतीति सास्वादनमुच्यते। – • षडशीतिप्रकाश, पत्रांक 43-44
इदं
'सम्मत्तरयण पव्वयसिहरादो मिच्छभूमि समभिमुहो ।
जासिय सम्मतो सो सासणजामो मुणेयव्वो । । • गोम्मटसार, जीवकाण्ड - 20
'गुणस्थान सिद्धान्तः एक विश्लेषण, डॉ. सागरमल जैन, पृ.54
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