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तक नहीं पहुँच पाता है। यह अवस्था जीव की अज्ञानमय अवस्था है। इसमें मोह की स्थिति प्रगाढ़ होती है। दर्शनमोहनीय-कर्म के प्रभाव के कारण प्रथम गुणस्थान का नाम मिथ्यात्व गुणस्थान है। प्रथम गुणस्थानवी जीव में क्रोध, मान, माया, लोभ (अनंतानुबन्धी कषाय) अति तीव्र होते हैं। वासनात्मक-प्रवृत्तियों का प्रभाव हर क्षण बना रहता है, जिनके कारण वह सत्य-दर्शन एवं नैतिक-आचरण से वंचित रहता
जैन-सिद्धान्तानुसार, संसार की अधिकतर आत्माएँ मिथ्यात्व-गुणस्थान की निवासी हैं। इनको दो भागों में बांटा गया है - 1. भव्य-आत्माएँ और 2. अभव्यआत्मा।
1. भव्य-आत्मा :- जो भविष्य में कभी भी अपने यथार्थ ज्ञान के कारण आध्यात्मिक-विकास की अग्रिम भूमिकाओं की अधिकारी बनेगी, वह भव्य-आत्मा है।
2. अभव्य-आत्मा :- जो हमेशा के लिए नैतिक-विवेक एवं नैतिक-आचरण से शून्य ही रहेगी, वह अभव्यात्मा है। यह आत्मा लक्ष्य-विमुखता के कारण ही आध्यात्मिक-विकास की भूमिका की अधिकारी नहीं बनती है। इस गुणस्थान में आत्मा को पाँच वस्तुओं का अभाव होता है - 1. एकान्तिक धारणाओं, 2. उल्टी धारणाओं, 3.सदियों से चली आ रही असम्यक–परम्पराओं, 4. शंका और 5. विवेकज्ञान से रहित रहती है। इसमें यथार्थ दृष्टिकोण के प्रति उसी प्रकार रुचि नहीं होती, जिस प्रकार बुखार–पीड़ित व्यक्ति को सरस षट्रस भोजन भी रुचिकर नहीं लगता है। किसी ने शंका की है कि मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञानसहित होता है। वह यथार्थबोध को न तो जान पाता है और न ही तदनुसार जीवन जी सकता है, तो फिर मिथ्यात्व को गुणस्थान की श्रेणी में क्यों रखा गया ?
6 तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धिटीका, (पूज्यपाद) - 8/1 64 गोम्मटसार, जीवकाण्ड -17
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