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________________ 258 थोड़ा-बहुत प्रसंग आया है। 'धवला' में बहुत ही स्पष्ट रूप से धर्म्यध्यान के पात्र का वर्णन करते हुए लिखा है कि सकषायी जीवात्मा ही धर्मध्यान का अधिकारी है, क्योंकि धर्मध्यान की कार्य-प्रणाली असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वसंयत, अनिवृत्तिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायिक–क्षपकों एवं उपशमकों में होती है; यह जिनेश्वर-वाणी से जाना जाता है। 'आदिपुराण' के अनुसार, सम्यग्दृष्टियों, संयतासंयतों और प्रमत्तसंयतों में धर्मध्यान की स्थिति संभव है। 'तत्त्वानुशासन' में लिखा है कि धर्म्यध्यान अप्रमत्तों में और औपचारिक इतरों में सम्यग्दृष्टि, देशसंयत और प्रमत्तसंयतों में होता है। 23 आवश्यकचूर्णि, 24 योगशास्त्र,25 ध्यानदीपिका आदि ग्रन्थों में भी धर्मध्यान की पात्रता का निरूपण किया गया है। सामान्यतया, चौथे गुणस्थान अर्थात् सम्यक्दर्शन को प्राप्त करने के बाद ही साधक धर्मध्यान की पात्रता को पाता है। धर्मध्यान के स्वामी के प्रश्न को लेकर अनेक मतभेद हैं। 4. शुक्लध्यान का स्वामी - धर्मध्यान के स्वामी के पश्चात् शुक्लध्यान के अधिकारी का परिचय देते हुए 'ध्यानशतक' के कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कहा है कि धर्मध्यान में अभ्यस्त् 20 तत्त्वार्थवार्तिक - 9/36, 14-16 21असंजदसम्मादिदि-संजदाजद-पमत्तसंजद-अप्पमत्तसंजद-अपव्वसंजद-अणियट्टिसंजद- सहम सांपराइय–खवगोवसामएसु धम्मज्झाणस्स पवुत्ती होदि त्ति जिणोवएसादो।। - धवला, पुस्तक 13, पृ.74 22 आदिपुराण, 21/155-156 " मुख्योपचार भेदेन धर्म्यध्यानमिह-द्विधा । अप्रमत्तेषु तन्मुख्यमितरेष्वौपचारिकम्। - तत्त्वानुशासन,47 24 पंचासपडिविरओ चरित्त जोगंमि वट्टमाणो उ। सुत्तत्थमणुसरंतो धम्मज्झायी मुणेयव्वो।। -आवश्यकचूर्णि-7 23 सुमेरूरिव निष्कम्प......प्रशस्यते।। – योगशास्त्र-7/7 26 ज्ञानवैराग्यसंपन्न ........निर्ममः समतालीनो ध्याता स्यात् शुद्धमानसः ।। -ध्यानदीपिका- 130-133 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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