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'ध्यानशतक' ग्रन्थ के ग्रन्थकार ने कहा है कि जिस साधक का अन्तःकरण सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र तथा वैराग्यभाव से ओतप्रोत है, वह धर्मध्यान का अधिकारी कहलाता है । 15
दूसरे शब्दों में, जो श्रमण मद, विषय, कषाय, विकार आदि सर्वप्रमादों से रहित हैं, जिनका मोह पतला अथवा उपशान्त हो गया है, ऐसे ज्ञानी साधक धर्मध्यान के स्वामी हैं।
'तत्त्वार्थसूत्र' में धर्मध्यान के स्वामी को लेकर कुछ भिन्नता है। श्वेताम्बरपराम्परानुसार धर्मध्यानीवर्ती में अप्रमत्तसंयत, उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थान होते हैं, अर्थात् सातवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक धर्मध्यान शक्य है । 16
दिगम्बर - परम्परानुसार तत्त्वार्थसूत्र के मूलपाठ में धर्मध्यानाधिकारी का वर्णन नहीं है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर- टीकाओं में पूज्यपाद अकलंक तथा विद्यानन्दी ने इसका वर्णन किया है कि चौथे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक ही धर्मध्यान रहता है, आगे के गुणस्थानों में धर्मध्यान की संभावना नहीं है ।
'सर्वार्थसिद्धि' में इतना लिखा है कि अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत –इन चार गुणस्थानों में धर्मध्यान होता है। 17
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बृहद्रव्यसंग्रहटीका 8 और अमितगतिश्रावकाचार 19 में भी धर्मध्यानी के अस्तित्व को अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत - इन चार आध्यात्मिक - विकास की भूमियों को स्वीकार किया है । तत्त्वार्थवार्त्तिक में धर्मध्यान के अधिकारी के बारे में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है, शंका के निवारण में जरूर
Is सव्वप्पमायरहिया मुणओ खीणोवसंत मोहा य । झायारो नाण-धणा धम्मज्झाणस्स निद्दिट्ठा | |
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..अप्रमत्तसंयतस्य । उपशान्त क्षीणकषायोश्च ।।
• तत्त्वार्थसूत्र 9 / 37-38 सर्वार्थसिद्धि 9 / 36
” तदविरत - देशविरत - प्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति ।।
18. तारतम्यवृद्धिक्रमेणासंयतसम्यग्दृष्टि - देशविरत प्रमत्तसंयताप्रमत्ताभिधान-चतुर्गुणस्थानवर्तिजीवसम्भवम् ।। - बृहद्रव्यसंग्रह, टीका 48, पृ. 175
19 अमितगति श्रावकाचार
15-17
ध्यानशतक, गाथा 63
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