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संयतासंयतों में चारों प्रकार के आर्तध्यान शक्य हैं, परन्तु प्रमत्त-संयतों में निदान के बिना शेष तीन प्रकार के आर्त्तध्यान होते हैं।
इस प्रकार, यहाँ आर्त्तध्यान के स्वामी की चर्चा समाप्त करते हुए रौद्रध्यान के स्वामी के सन्दर्भ में इस प्रकार कहा गया है -
2. रौद्रध्यान का स्वामी -
'ध्यानशतक' के अन्तर्गत रौद्रध्यान के स्वामी का निरूपण करते हुए ग्रन्थकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कहा है कि अविरत और देशविरत गुणस्थान में रौद्रध्यान होता है। इन दोनों गुणस्थानों में आर्तध्यान भी होता है, परन्तु अन्तर इतना है कि आर्त्तध्यान की अपेक्षा रौद्रध्यान में अतिसंक्लिष्ट परिणाम रहते हैं।'
तत्त्वार्थसूत्र", सर्वार्थसिद्धि", तत्त्वार्थवार्तिक , हरिवंशपुराण13 और ज्ञानार्णव'" आदि ग्रन्थों में यह निर्दिष्ट है कि रौद्रध्यान का अस्तित्व एक से पाँच गुणस्थान तक ही होता है।
3. धर्मध्यान का स्वामी -
धर्मध्यान के स्वामी के सम्बन्ध में जैनधर्म के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्प्रदायों में मतभेद रहा हुआ है।
8 अपथ्यमपि पर्यन्ते रम्यमप्यग्रिमक्षणे। विद्ध्यसद्ध्यानमेतद्धि षड्गुणस्थानभूमिकम।
संयतासंयतेष्वेतच्चतुर्भेदं प्रजायते। प्रमत्तसंयतानां तु निदानरहितं त्रिधा।। -ज्ञानार्णव, 38-39 १ अविरय-देसासंजयजणमणसंसेवियमहण्णं ।। - ध्यानशतक, श्लो. 23 1° तत्त्वार्थसूत्र, 9/35 । सर्वार्थसिद्धि 9/35 12 तत्त्वार्थवार्तिक 9/35 13 हरिवंशपुराण 56/26 14 ज्ञानार्णव 36
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