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________________ व लोभ के अधीन होकर जीव विषय-वासना तथा भोगोपभोग के साधनों की उपलब्धि और उनके संरक्षण की चिन्ता में लगा रहता है तथा उनको नष्ट करने वाले निमित्तों, अथवा व्यक्तियों के प्रति जो आक्रोश का भाव है, वह चौथा संरक्षणानुबन्धी-रौद्रध्यान है। सारांश यह है कि उक्त चार प्रकार का रौद्रध्यान कृत, कारित एवं अनुमोदित- इन तीनों पर घटित होता है। ये चारों प्रकार के रौद्रध्यान नरकगति के हेतु हैं। ये अप्रशस्त-ध्यान मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि तथा देशविरत श्रावकों में सम्भव हैं, अर्थात् रौद्रध्यान पहले से पांचवें गुणस्थान तक पाया जाता है। जिस प्रकार आर्तध्यानी को कर्मों के विपाकस्वरूप कापोत, नील और कृष्ण लेश्याएं होती हैं, लेकिन वे इतनी प्रभावशाली नहीं होती हैं, जितनी ये तीनों लेश्याएं रौद्रध्यानी में प्रभावशील होती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे आर्त्तध्यानी के लेश्या, लिड्.गों तथा लक्षणों का उल्लेख किया गया था, वैसा ही गाथा क्रमांक सोलह से सत्ताईस तक रौद्रध्यानी के लेश्या, लिड्.गों तथा लक्षणों का वर्णन किया गया है। ___ आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान को ध्यान की श्रेणियों में गिनने के बावजूद भी ये अति तीव्र संक्लिष्टमान् होने के फलस्वरूप त्याज्य अथवा छोड़ने योग्य हैं। - इस ग्रन्थ में इन दो ध्यानों का विवेचन अति संक्षिप्त में, मात्र इक्कीस श्लोकों में ही पूर्ण हुआ है, जबकि धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान का वर्णन लगभग सतहत्तर से अठहत्तर (77-78) तक की गाथाओं में किया गया है। धर्मध्यान को निरूपित करते हुए गाथा क्रमांक अठाईस एवं उनतीस में ग्रन्थकार ने सर्वप्रथम यह बताया है कि शुभध्यान में तल्लीन अथवा एकाग्र बनने के लिए- 1. भावना, 2. देश, 3. काल, आसन-विशेष, 5. आलंबन, 6. क्रम, 7. ध्यातव्य, 8. ध्याता, 9. अनुप्रेक्षा, 10. लेश्या, 11. लिड्.ग और 12. फलादि के स्वरूप को समझकर ही धर्मध्यान का चिन्तन-मनन करना चाहिए, अथवा उपर्युक्त तथ्यों को जानकर धर्मध्यान में प्रवृत्त होना चाहिए। तदनुसार धर्मध्यान में रमण करते-करते शुक्लध्यान की ओर आगे बढ़ना चाहिए।16 यदि साधक भावना, देश आदि द्वारों का सम्यक्-प्रकारेण चिन्तन-मनन (विचार-विमर्श) करता है, तो वह शुभध्यान-विषयक पात्रता को प्राप्त कर लेता है। 15 सत्तवह-वेह-बन्धण ...........रोद्दज्झाणोवगयचित्तो।। - ध्यानशतक, गाथा - 19-27 16 झाणस्स भावणाओ ....................तओ सुक्कं ।। - ध्यानशतक, गाथा - 28-29. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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