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________________ आगे, गाथा क्रमांक तीस से चौंतीस तक में कहा गया है कि सम्यग्ज्ञान का आस्वादन, शंका-कांक्षादि दोषों से रहित सम्यग्दर्शन तथा सस्त सावद्य पाप-प्रवृत्तियों से विरक्ति (निवृत्ति) रूप सम्यक्चारित्र से अन्तःकरण निर्मल और पवित्र बन जाता है, इसलिए वह साधक धर्मध्यान में पूर्णतया तल्लीन या स्थिर हो जाता है।" आगे, गाथा क्रमांक पैंतीस से इकतालीस तक ध्यान के क्षेत्र और काल की चर्चा की गई है ___ साधक के लिए ध्यान-साधना के क्षेत्र-विषयक एक बात स्पष्ट है कि जहां चित्त की वृत्तियां स्थिर रह सकें, वह स्थान ही साधक के लिए अनुकूल है। चित्तवृत्तियों की स्थिरता के लिए काल भी वही श्रेष्ठ है, जहां मन, वचन और काया की प्रवृत्तियां समभाव में स्थिर रह सकें। तात्पर्य यह है कि ध्यान हेतु दिन, रात, बेला आदि कोई निश्चित समय निर्धारित नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार, आसनों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि पद्मासन, वज्रासन या कायोत्सर्ग-मुद्रा में ही ध्यान फलित होता है- ऐसा भी कोई निश्चित नियम नहीं है, अथवा देह की जिस अभ्यस्त अवस्था में बाधारहित ध्यान सम्भव हो, उसी अवस्था में ध्यानमग्न होना चाहिए। ध्यान के लिए तो एक ही नियम लागू होता है कि मन-वचन और काया के योगों की स्थिरता कैसे सम्भव हो ? योग की स्थिरता के लिए खड़े होकर, लेटकर, बैठकर अथवा सोकर भी ध्यान किया जा सकता है। इसमें ग्रन्थकार की दृष्टि से कोई आपत्तिजनक बात नहीं है।18 इस प्रकार, ग्रन्थकार ध्यान के क्षेत्र, काल और आसन के सम्बन्ध में कोई आग्रह नहीं रखते हैं। आगे, गाथा क्रमांक बयालीस से अड़सठ तक धर्मध्यान के क्षेत्र में स्वाध्याय आदि की आवश्यकता बताई गई है। आत्मा का अन्तर-दर्शन या अवलोकन करने से ध्यान के विकास-क्रम में प्रगति होती है, साथ ही चित्तवृत्तियों की चंचलता में स्थिरता की वृद्धि होती है। वाचना, पृच्छना, परिवर्तना तथा अनुप्रेक्षा- ये ध्यानांग न होकर स्वाध्याय के अंग हैं। स्वाध्याय का मतलब है- आत्मोन्मुख होना। आत्मोन्मुख प्रवृत्ति चित्तवृत्ति की " पुव्वाकयष्भासो भावणाहिं ...साणंम्मि सुनिच्चलो होई।। - ध्यानशतक, गाथा - 30-34. होइ तहा पयइयव्वं ।। - ध्यानशतक, गाथा - 35-41. 18 निच्चं चिय जुवइ..... Jain Education International 'For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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