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________________ प्रकार के अशुद्ध अध्यवसायों को ही आर्त्तध्यान कहा है। 12 समता - भाव की परिणति में रमण करने वाला श्रमण वस्तु के वास्तविक स्वरूप का चिन्तन-मनन करता है, इसलिए रोगादि पीड़ा (शारीरिक अस्वस्थ्यता) होने पर, पूर्वसंचित कर्मों से उत्पन्न हुई जानकर, उसे समभाव से सहन करता है। ऐसे समय में रोगमुक्ति का निर्दोष उपाय स्वीकार करना, अर्थात् शल्यक्रिया से उसका निवारण करना आर्त्तध्यान न होकर धर्मध्यान ही होता है। ऐसे विवेकी श्रमण का आलम्बन - ग्रहण प्रशस्त होता है, उनकी मोक्षाभिलाषा निदान-रूप नहीं होती है, क्योंकि समभाव ही उनका स्वभाव बन गया है। 13 यह चर्चा गाथा क्रमांक दस से तेरह तक के मध्य की है। आर्त्तध्यानी कापोत, नील तथा कृष्णइन तीन निम्न कोटियों की लेश्याओं वाला होता है। आर्त्तध्यान करने वाले व्यक्ति के लक्षण आक्रन्दन, शोचन, परिवेदन तथा ताड़न आदि हैं, जिनका उल्लेख इस ग्रन्थ में है । इसी क्रम में आगे, आर्त्तध्यान का अधिकारी (स्वामी) कौन है, अर्थात् किस-किस गुणस्थान के जीवों को आर्त्तध्यान होता है, इसका निर्देश भी किया गया है। 14 आगे, ग्रन्थकार का कथन है कि रौद्रध्यान आक्रोश या आवेशपूर्ण स्थिति वाला होता है। ग्रन्थकर्त्ता ने रौद्रध्यान को चार भागों में वर्गीकृत किया है, जो निम्न हैं 1. हिंसानुबन्धी 2. मृषानुबन्धी 3. स्तेयानुबन्धी 4. संरक्षणानुबन्धी। अतिशय क्रोध की अवस्था में निर्दयी बनकर एकेन्द्रियादि लाचार जीवों पर ताड़ना- - तर्जना करने, अंग-भंग करने, छेदन - भेदन करने के साथ ही उनको प्राणविहीन करने आदि निम्न कोटि के कार्यों को करते हुए, या द्रव्यरूप से उन कार्यों को करते हुए या न करते हुए भी भावरूप से निरन्तर इन कार्यों का विचार या चिन्तन-मनन करना हिन्सानुबन्धी नामक पहला रौद्रध्यान है। मायापूर्ण वचन, परनिन्दाजनक वचन, आलोचनात्मक वचन, असभ्य भाषा तथा प्राणी का घात करने वाले वचनों में प्रवृत्ति न करते हुए भी उनका निरन्तर चिन्तन-मनन मृषानुवादी नामक दूसरे प्रकार का रौद्रध्यान है । प्रतिपल - प्रतिक्षण दूसरों की वस्तुओं को चुराने के अशुभ अध्यवसायों का चिन्तन-मनन करते रहना स्तेयानुबन्धी नाम का तीसरा रौद्रध्यान है । लगातार तीव्र क्रोध 13 एयं चउव्विहं रागदोस ......तं संसार तरुबीयं । । कावोय-नील कालालेस्साओ.. ...जइजणेणं । । 14 6 Jain Education International ध्यानशतक, गाथा - 10-13 ध्यानशतक, गाथा - 14-18 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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