________________
245
योगशास्त्र में लिखा है कि मायाश्रित कभी नहीं रहना चाहिए, क्योंकि यह असत्य की जननी, शीलवृक्ष को नष्ट करने वाली कुल्हाड़ी, मिथ्यात्व और अज्ञान की जन्मभूमि एवं दुर्गति की द्योतक है।937
ज्ञानार्णव के अनुसार- यह माया अज्ञान की पृथ्वी, अप्रशंसा का घर, पाप की गर्त और मोक्षपथ की बाधक है।838
इस माया-कषाय से अधीन होकर जीव कपट-वचन से स्वयं के एवं दूसरों के प्राणों को संकट में डाल देता है और यदि छल द्वारा कार्य सिद्ध न हो, तो स्वयं बहुत बचैन एवं संतप्त होता है। माया महादोष है, इसमें उपयोगवृत्ति न जुड़ जाए- इसका खास ध्यान रखना चाहिए ।939
समवायांगसूत्र40, भगवतीसूत्र41, कसायपाहुड942 में माया की क्रमशः सत्रह, पन्द्रह एवं ग्यारह पर्यायें बताई गई हैं। चित्त सरल हो, कुटिलतारहित हो, माया -कषायरूप प्रवृत्ति न हो- ऐसी प्रवृत्ति का नाम ही आर्जव-गुण है। इसमें मुख्य रूप से वक्रता (दोहरेपन) का निरसन होना जरूरी है, क्योंकि वक्रता हमारे विकास के द्वार बन्द कर देती है।
तत्त्वार्थसूत्र में लिखा है- सरलता से अर्थात् ऋजुता से जीव देह की सरलता, परिणामों की सरलता, भाषा की अभिव्यक्ति की सरलता और अविसंवादिता को प्राप्त करता है, जिससे धर्म-साधना की पात्रता के योग्य बन जाता है।843
काया, भाव तथा भाषा की सरलता और अविसंवादन-योग शुभ-नामकर्म के हेतु हैं344 और तीनों की वक्रता तथा विसंवाद-योग अशुभ-नामकर्म के हेतु हैं।845
838 ज्ञानार्णव, सर्ग- 19.
839 मोक्षमार्ग प्रकाशक, पं. टोडरमल, पृ. 23. 840 माया उ वही नियडा वलए ......... || - समवाओ, समवाय- 52, सूत्र- 1. 841 भगवतीसूत्र, श.- 12, उद्देशक- 5, सूत्र- 4. 842 कषायचूर्णि, अध्याय- 9, गाथा- 88. 843 (क) योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः। विपरीतं शुभस्य। - तत्त्वार्थसूत्र- 6/21-22. (ख) अज्जवयाएणं काउज्जुययं, भावुज्जुययं, भासुज्जुययं, अविसंवायणं, जण्यइ।
अविसंवायण-संपन्नयाए णं जीवे धम्मस्स आराहए भवइ ।। - उत्तराध्ययन- 29/49. 844 गोयमा! कायउज्जुयाए, भावुज्जुयाए, भासुज्जुययाए अविसंवायणजोगेणं सुभ नामकम्मासरीर
जाव पओगबंधे। - भगवतीसूत्र, श.- 8, उद्देशक- 1, सूत्र- 84. 845 गोयमा कायअणुज्जययाए ......... जाव विसंवायणजोगेणं पओगबंधे।। – भगवतीसूत्र- 8/9. 846 नानार्जवो विशध्यति न धर्ममाराधयत्यशुद्धात्मा।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org