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प्राप्ति के पश्चात् इन वस्तुओं की विनश्वरता का विचार करके अभिमानरूपी शूल को निकालकर फेंक देना चाहिए। 831 चूंकि शुक्लध्यान के साधक का हृदय मृदुता या नम्रता से सराबोर होता है, इसलिए मार्दव - गुण शुक्लध्यान का आलम्बन कहलाता है।
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3. आर्जव - आलम्बन ध्यानशतक के प्रणेता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने गाथा क्रमांक उनहत्तर के अन्तर्गत शुक्लध्यानी के आलम्बन की चर्चा करते हुए कहा है कि आर्जव - गुण की प्राप्ति माया- कषाय के अभाव से होती है। 832
दशवैकालिकसूत्र में भी यही कहा गया है कि माया- कषाय पर विजय पाने के लिए ऋजुभाव (सरलता) जरूरी है। 833 छल, कपट और मायावृत्ति से जीव अनन्त बार संसार - परिभ्रमण कर चुका है, कर रहा है और भविष्य में भी यही वृत्ति रही, तो करता रहेगा। थोड़ी-सी भी मायाचार की वृत्ति भयंकर दुष्परिणाम उत्पन्न कर देती है। मायावी जीव में कुटिलता कूट-कूट कर भरी रहती है ।
धर्मामृत (अनगार) में तो स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि जिसकी कथनी एवं करनी में अन्तर है, वह मायावी कहलाता है 34 और मायावी कभी किसी का विश्वासपात्र नहीं बन सकता है, क्योंकि उसका अन्तःकरण विश्वासघात की वृत्ति वाला होता है ।
आचारांगसूत्र के अनुसार, मायावी तथा प्रमादी पुनः पुनः जन्म-मरण करता रहता है, उसके संसार - परिभ्रमण का कभी अन्त नहीं होता । माया- कषाय के अभाव में उसकी सम्पूर्ण आराधना - साधना निष्फल होती है। 835
सूत्रकृतांगसूत्र के अन्तर्गत माया से होने वाली हानियों का निर्देश करते हुए लिखा है कि मायावी क्यों न निर्वस्त्र होकर घोर तपस्या करके कृशकायी होकर विचरण करे, सुदीर्घ तपस्या करे, फिर भी अनन्तकाल तक जन्म-मरण करता रहता है | 836
832 ध्यानशतक, गाथा - 69. 833 मायं चज्जवभावेण
834 यो वाचा स्वमपि स्वान्तं
835 माई पमाई पुणरेह गब्
836 जे इह मायाइ मिज्जइ, आगंता गब्भाय णंत सो।।
योगशास्त्र - 4/14.
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।। दशवैकालिकसूत्र - 8/8/39.
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।। - धर्मामृत, अध्याय - 8, गाथा - 19.
11 आचारांगसूत्र, अध्याय - 3, उद्देशक - 1, सूत्र - 14.
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• सूत्रकृतांगसूत्र, अध्याय - 2, उद्देशक - 2, गाथा - 9.
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