SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 243 1. जाति-मद 2. कुल-मद 3. रूप-मद 4. बल-मद 5. श्रुत-मद 6. तप-मद .. लाभ-मद और 8. ऐश्वर्य-मद। मृदुता इन आठ मदों को समाप्त कर सकती है। मृदुता के माध्यम से व्यक्ति का चित्त विनम्रवृत्तियुक्त बन जाता है। मृदुता गुण के प्रकटीकरण के बाद जीव को न तो स्वयं की प्रशंसा या सम्मान की अपेक्षा होती है और न ही उसकी बड़े-छोटे के पक्षपात की प्रवृत्ति रहती है। __ प्रशमरतिप्रकरण में कहा है कि समस्त गुण विनयाधीन हैं और विनय मार्दवाधीन है। जिसकी परिणति मार्दव-धर्म के अनुकूल है, वह समग्र गुणों का अधिकारी बन जाता है।826 तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति के अनुसार- अभिमान के परिणाम से रहित वर्तन करना, जैसे- खड़ा होना, आसन प्रदान करना, हाथ जोड़ना आदि यथोचित विनय करना और गर्व के परिणाम से आत्मा को दूर रखना, जाति, कुलादि आठ प्रकार के जो मद्यस्थान हैं, उनसे दूर रहना ही मार्दव-धर्म है।927 सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि मार्दव-धर्म को सिद्ध करने के लिए जाति, कुलादि के मद का परित्याग जरूरी है।928 मद के आवेश का अभाव ही मार्दव है। - रत्नकरण्डश्रावकाचार29 के अनुसार- ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप, शरीर- इन आठ वस्तुओं का अभिमान नहीं करना मार्दव है, अथवा परकृत पराभिमान की उत्पत्ति के निमित्त मिलने पर भी अभिमान नहीं करना मार्दव है।930 ___पं. सुखलाल संघवी ने तत्त्वार्थसूत्र में इसे परिभाषित करते हुए कहा है कि चित्त में मृदुता और व्यवहार में भी नम्रवृत्ति का होना मार्दव-गुण है। जाति, कुलादि की 825 गोयमा । जाइअमएणं, कलअमएणं, बलअमएणं, रूवअमएणं, तवअमएणं, सयअमएणं ___ लाभअमएणं, इस्सरियअमएणं ...... || - भगवतीसूत्र- श.- 8, उद्देशक- 9. 826 विनयायत्ताश्च गुणाः सर्वे विनयश्च मार्दवायत्तः। यस्मिन् मार्दवमखिलं स सर्वगुणभाक्त्वमाप्नोति।। - प्रशमरतिप्रकरण- 169. 827 नीचैर्वृत्त्यनुत्सैकाविति। नीचैर्वृत्तिः-अभ्युत्थानासनदाना-जलिप्रगृह्यथाहविनयकरूणा रूपाउत्से कष्टित्तपरिणामो गर्वरूपस्तद्विपर्ययोऽनुत्सेकः .......... || - तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति- 02. 828 जात्यादिमदावेशादभिमाना भावों मार्दव मान निर्हणं वा।। - सर्वार्थसिद्धि. 829 ज्ञानं पूजां कुल जाति बलमृद्धि तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गत स्मथाः।। इति श्लोक कथित स्याष्ट विद्यस्य मदस्य समावेशात् परकृत पराभि-भवन निमिताभिमान मुक्ति मार्दव मुच्यते।। - रत्नकरण्डक श्रावकाचार. 830 प्रस्तुत सन्दर्भ 'धर्मालंकार' पुस्तक से उद्धृत, पृ. 37. 1831 तत्त्वार्थसूत्र, संकलन- पं. सुखलाल संघवी, पृ. 209. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy