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________________ अहंकार व्यक्ति को पतन के मार्ग पर प्रयाण कराता है। अभिमानी मनुष्य की वृत्ति स्वार्थमय होती है। मैं ही महान् हूं, मैं ही सब कुछ हूं मैंने ऐसा किया है, मैंने वैसा किया है, मेरे पास सबकुछ है- वह इसी प्रकार से सोचकर अभिमान करता है । ज्ञानी कहते हैं कि यह सब मानव का झूठा भ्रम है। अभिमान से मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है। 18 मान एक ऐसी मनोवृत्ति है, जिसमें व्यक्ति स्वयं को बड़ा एवं दूसरों को छोटा समझने लगता है । सूत्रकृतांग के अनुसार, अहंकारी अपने घमण्ड में चूर होकर दूसरों को अपनी प्रतिच्छाया के समान निम्न समझता है। 819 ज्ञानार्णव के प्रणेता शुभचन्द्राचार्य का कहना है कि अभिमानी विनय का उल्लंघन करता है और स्वच्छन्दाचारी होता है | 820 योगशास्त्र के कर्त्ता मानकषायजनित हानियों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि मान से विनय, श्रुत और सदाचार का हनन होता है। यह धर्म, अर्थ और काम का घातक है 821 धर्मामृत (अनगार) में कहा गया है कि जैसे सूर्यास्त होते ही अंधेरा छा जाता है और निशाचर (राक्षस) इधर-उधर घूमने लगते हैं, उसी प्रकार विवेकरूपी सूर्य के अस्त होते ही मोह का तिमिर चारों और फैल जाता है, रागद्वेषरूपी निशाचर भटकने लगते हैं, व्यक्ति अनभिज्ञ होकर स्वेच्छाचार में प्रवर्त्तन करता है | 822 भगवतीसूत्र की वृत्ति में अभयदेवसूरि ने लिखा है कि जिस वृत्ति के उदय से अहंकार का भाव उत्पन्न होता है - वह वृत्ति ही मान कहलाती है। 823 समवायांगसूत्र 24 तथा भगवतीसूत्र 25 में अहंकार उत्पन्न होने के आठ हेतु बताए गए हैं, इसीलिए मद (घमण्ड ) के आठ प्रकार हैं लुप्यते मानतः पुंसां विवेकामललोचनम् ।। अणं जणं पसति बिंबभूयं करोत्युद्धतधीर्मानाद्विनयाचारलघनम् ।। - विनयश्रुतशीलानां त्रिवर्गस्य च घातक धर्मामृत (अनगार) अध्याय - 6, श्लोक - 10. भगवतीसूत्र/रा. 12/उ. 5 / सूत्र - 3 की वृत्ति, वृत्तिकार - अभयदेवसूरि. 824 अट्ठ मयट्णा पण्णत्ता, तं जहा- 'जातिमए, कुलमए, बलमए, रूवमए, तवमए, सुयमए, लाभमए, इस्सरियम । समवाओ, समवाय - 8, सूत्र - 1. 818 819 820 821 242 822 823 Jain Education International शुभभद्राचार्य. ।। - सूत्रकृतांग- 13/8. ज्ञानार्णव- 19 / 53. — ।। - योगशास्त्र - 4/12. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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