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________________ 234 मनोयोग के साथ गहन चिन्तन करने से अनेक गुत्थियों का समाधान प्राप्त होता है।' जैसे-जैसे आत्मा श्रुतसागर में अवगाहन करती है, वैसे-वैसे उसे अनुपम ज्ञान-रत्नों की उपलब्धि होती है। अनुप्रेक्षा अथवा चिन्तन का लाभ बताते हुए शास्त्रों में कहा गया है कि आयुकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरणीय आदि सात कर्म-प्रकृतियां यदि गाढ़ बन्धन से बन्धी हुई हों, तो उन्हें अनुप्रेक्षा स्वाध्यायी शिथिल बन्धन वाली बना लेता है, यदि तीव्र रस वाली हो, तो मन्द रस वाली बना लेता है और यदि बहुत प्रदेश वाली हो, तो कम प्रदेश वाली कर डालता है, अतः वाचना, पृच्छना, परावर्तना और अनुप्रेक्षा- ये चारों श्रुतधर्म के अन्तर्गत रहे हुए धर्मध्यान के आलम्बन हैं। इसके अतिरिक्त, सामायिक, स्तुति, प्रतिक्रमण, पडिलेहन आदि आवश्यक –क्रियाएं भी धर्मध्यान के आलम्बन-रूप हैं, जो चारित्रधर्म के अन्तर्गत आती हैं। 68 ध्यानदीपिका में लिखा है कि अनुप्रेक्षा, अर्थात् विचार करना, अर्थात् आत्मलाभ में उपयोगी पदार्थों का विचार करना एवं निरुपयोगी अथवा आत्मलाभ में, विघ्नरूपी विचारों को हटाकर उपयोगी क्रियाओं में संलग्न रहना, ताकि आत्मस्वरूप का विस्मरण न हो और जाग्रति के पलों में ज्यादा-से-ज्यादा समय तक आत्मस्वरूप का स्मरण बना रहे। 69 धर्मामृत (अनगार) में कहा गया है कि पूर्वपठित सूत्रों के शुद्धतापूर्वक पुनः पुनः उच्चारण को आम्नाय कहते हैं।70 इसी ग्रन्थ के अन्तर्गत लिखा है कि देववन्दना के साथ धर्म का कथन करना धर्मकथा है। धर्मकथा के आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेजनी और निवेदनी नामक चार प्रकार हैं। 1. आक्षेपिणी - जिस कथानक में श्रुत, चारित्र के कथन का वर्णन किया जाता है, जैसे- मति, श्रुतादि ज्ञानों का निरूपण है और सामायिक, प्रतिलेखनादि चारित्र का स्वरूप है, उसे आक्षेपिणी कहते हैं।72 769 आलम्बनानि धर्मस्य वाचनाप्रच्छनादिकः । ........ – ध्यानदीपिका, श्लोक- 118. 770 आम्नायो घोषशुद्धं यद् वृत्तस्य परिवर्तनम।। - धर्मामृत अनगार- 7/87. 771 धर्मोपदेशः स्याद्धर्मकथा संस्तुति मङ्गला ।। – वही- 7/87. 2 आक्खेवणी कहां सा विज्जाचरणमुवदिस्सदे जत्थ। – भगवती-आराधना- 655. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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