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________________ प्रशमरतिप्रकरण के प्रणेता उमास्वाति ने भी प्रस्तुत ग्रन्थ में श्लोक क्रमांक एक सौ बयासी में बुद्धि को स्थिर रखने के लिए चार प्रकार की धर्मकथा के अभ्यास करने का निर्देश किया है। वे कहते हैं कि जो कथा जीवों को धर्माभिमुख करती है, उसे आक्षेपणी कहते हैं । 773 2. विक्षेपणी जिस कथा के अन्तर्गत स्व तथा पर की चर्चा की जाती है, वह विक्षेपिणी है, जैसे- वस्तु सर्वथा नित्य है या क्षणिक है, एक है या अनेक है, सब सत् है अथवा असत्, ज्ञानमय है या शून्य, इत्यादि । दूसरे पक्ष में कहा गया है कि कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य, कथंचित् एक कथंचित् अनेक इत्यादि स्वरूप का निरूपण करना विक्षेपिणी - कथा कहलाती है। 774 प्रशमरतिप्रकरण के अनुसार, जो कथा जीवों को कामभोग से मुक्त अथवा कुमार्ग से विमुख करती है, उसे विक्षेपिणी कहते हैं। 775 3. संवेजनी सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा शुद्ध तप के द्वारा आत्मा में प्रकट होने वाली ऊर्जा अथवा शक्तियों के स्वरूप का वर्णन करने वाली कथा को संवेजनी कहते हैं। 776 प्रशमरतिप्रकरण के अनुसार, जो कथा जीवों को संसार से भयभीत करती है, उसे संवेदनी कहते हैं 777, जैसे- नरकादि का कष्ट । 4. निर्वेदनी रस, मांस, रुधिर, अस्थि - मज्जा आदि से युक्त यह देह अपवित्र है, रज और वीर्य उसका बीज है, अशुचि आहार उसका पोषक है, यह अशुचि ही नहीं, अपितु असार भी है, भोग भी क्षणिक हैं, उससे मिलने वाले सुख से मनुष्य कभी तृप्त नहीं हो सकता है, यहां दुःख की बहुलता एवं सुख की अल्पता है- इस तरह शरीर और भोगों की आसक्ति से विरक्त कराने वाली कथा निर्वेदनी कहलाती है। 778 प्रशमरतिप्रकरण के अनुसार जो कथा कामभोग से वैराग्य उत्पन्न कराती है, उसे निर्वेदनी कहते हैं। 779 773 आक्षेपणी 774 -│ 235 — ससमयपरसमयगदा कथा दु विक्खेपणी णाम । भगवती - आराधना - 655. 775 प्रशमरतिप्रकरण, श्लोक - 182. 776 संवेयणी पुण कहा णाणचरिततवीरियइदिढगदा । - भगवती आराधना - 656. 777 प्रशमरतिप्रकरण, श्लोक - 182. 778 णिव्वेयणी पुण कहा सरीरभोगे भवोघे य... ... । । 779 आक्षेपणी विक्षेपणी विमार्गबाधनसमर्थविन्यासा Jain Education International प्रशमरतिप्रकरण, श्लोक - 182. .... भगवती आराधना - 656. ।। - प्रशमरतिप्रकरण, श्लोक - 182. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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