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________________ 233 4. अनुचिन्ता (धर्मकथा)-आलम्बन - ध्यानशतक के कृतिकार धर्मध्यान के चौथे आलम्बन की अनुचिन्ता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि अनुचिन्ता को परिवर्तना में सम्मिलित कर कई ग्रन्थों में धर्मकथा को ही चौथा आलम्बन माना है। 63 धार्मिक सूत्र-सिद्धान्तों के कथन करने, पढ़ने, श्रवण करने तथा अर्थ का अनुप्रेक्षण कर उस पर चिन्तन-मनन करने से अन्तःकरण सबल बन जाता है। धर्मकथाओं के पठन एवं श्रवण से यह ज्ञात होता है कि किस-किस महापुरुष ने विषय-विकारों तथा कषायादि को नष्ट करने के लिए कैसी-कैसी साधना की, स्वभाव-दशा को प्राप्त करने एवं सदा-सर्वदा उसमें अवस्थित रहने के लिए घोर उपसर्ग उपस्थित होने के उपरान्त भी किस प्रकार वे साधना-मार्ग से विचलित नहीं हुए तथा यम-नियमों में स्थिर रहे। धर्म-सम्बन्धी सूत्र एवं अर्थ के चिन्तन-मनन से आत्मा सावद्यपथ से निरवद्यपथ की ओर गमन करने लगती है, वह सावद्य से मुक्ति और आत्मरमणता की युक्ति में संलग्न रहती है, अतः धर्मकथा धार्मिक, जीवन-निर्माण में सहायक होती है, इसलिए धर्मकथा धर्मध्यान का आलम्बन है। 64 स्थानांगसूत्र के अनुसार, पठित सूत्रों के अर्थ का चिन्तन करना ही अनुप्रेक्षा है।' तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति के अनुसार उदात्त आदि परिशुद्ध सूत्रों को दूसरों को देना, अथवा पदों के अक्षरों की गिनती करना आम्नाय कहलाता है। यहां धर्मोपदेश से तात्पर्य सूत्र और अर्थ का कथन, व्याख्यान, अनुयोग का वर्णन, श्रुत और चारित्र का धर्मोपदेश देना है। अध्यात्मसार'67 के अनुसार- 'सूत्र और अर्थ का गहन चिन्तन करना अनुप्रेक्षा -स्वाध्याय है। किसी भी शास्त्रीय और आगमिक-विषय पर एकाग्रतापूर्वक सम्पूर्ण 763 ध्यानशतक, संकलन- कन्हैयालाल लोढ़ा, पृ. 87. ध्यानशतक, गाथा- 42. 765 स्थानांगसूत्र- 4/1/67, संकलन- मधुकरमुनि, पृ. 224... 766 आम्नायोऽपि परिवर्तनम् उदातादिपरिशुद्धमनुश्रावणीयमभ्यास ... | - तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति. 767 वाचना चैव पृच्छा च पराकृत्यनुचिन्तने। क्रिया चालम्बनानीह सद्धर्मावश्यकानि च।। – अध्यात्मसार- 16/31. 768 अध्यात्मसार, डॉ प्रीतिदर्शना, पृ. 570. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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